वैश्या ने बदली स्वामी विवेकानंद की सोच
Thursday, Apr 19, 2018 - 08:41 AM (IST)
एक बार स्वामी विवेकानंद खेतड़ी से जयपुर आए। खेतड़ी नरेश उन्हें विदा करने के लिए जयपुर तक साथ आए थे। वहीं संध्या के समय मनोरंजक नृत्य और गायन का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम के लिए एक ख्यात नर्तकी को आमंत्रित किया गया था। जब स्वामी जी से इस आयोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया गया तो उन्होंने यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि नृत्य-गायन में संन्यासी का उपस्थित रहना अनुचित है।
जब नर्तकी को यह ज्ञात हुआ तो वह बहुत दुखी हो गई। उसे लगा कि क्या वह इतनी घृणा की पात्र है कि संन्यासी उसकी उपस्थिति में कुछ देर भी नहीं बैठ सकते? नर्तकी ने दर्द भरे स्वर में सूरदास का यह भक्ति गीत गाया, ‘‘प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो, समदर्शी है नाम तिहारो...।’’
भजन के बोल जब स्वामी जी के कानों में पड़े तो वह नर्तकी की वेदना को समझ गए। बाद में उन्होंने नर्तकी से क्षमा याचना की। इस घटना के बाद से स्वामी जी की दृष्टि में समत्व भाव आ गया। उसके बाद एक बार जब किसी ने दक्षिणेश्वर तीर्थ के महोत्सव में वेश्याओं के जाने पर आपत्ति की तो स्वामी जी ने कहा, ‘‘वेश्याएं यदि दक्षिणेश्वर तीर्थ में न जा सकें तो कहां जाएंगी।’’
पतितों के लिए ईश्वर विशेष अनुग्रह रखता है, पुण्यात्माओं के लिए उतना नहीं क्योंकि उन्हें इसकी वैसी जरूरत नहीं है, प्रभु शरणागत की जाति, धर्म आदि का विचार नहीं करता। वह तो गिरे हुए को उठाता है इसलिए मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि उनके चरणों पर शीश झुकाने के लिए शत-शत चोर, डाकू, शराबी, वेश्याएं आएं ताकि उन सभी का उद्धार हो सके और समाज सही अर्थों में प्रगति कर सके। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। जब उसकी दृष्टि में भेदभाव नहीं है तो उसकी रचना को भी परस्पर भेद-दृष्टि नहीं अपनानी चाहिए।