कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्ग लोक में स्थान नहीं है

Friday, Aug 04, 2017 - 11:55 AM (IST)

महाराज युधिष्ठिर अर्जुन के पौत्र कुमार परीक्षित को राजगद्दी पर बिठा कर तथा कृपाचार्य एवं धृतराष्ट्र पुत्र युयुत्सु को उनकी देख-भाल में नियुक्त करके अपने चारों भाइयों तथा द्रौपदी को साथ लेकर हस्तिनापुर से चल पड़े। पृथ्वी-प्रदक्षिणा के उद्देश्य से कई देशों में घूमते हुए वह हिमालय को पार कर मेरुपर्वत की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में देवी द्रौपदी तथा इनके चारों भाई एक-एक करके क्रमश: गिरते गए। इनके गिरने की परवाह न करके युधिष्ठिर आगे बढ़ते ही गए। इतने में ही स्वयं देवराज इंद्र सफेद घोड़ों से युक्त दिव्य रथ को लेकर सारथी सहित इन्हें लेने के लिए आए और इनसे रथ पर चढ़ जाने को कहा। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा प्रतिप्राणा देवी द्रौपदी के बिना अकेले रथ पर बैठना स्वीकार नहीं किया। इंद्र के यह विश्वास दिलाने पर कि वे लोग आपसे पहले ही स्वर्ग में पहुंच चुके हैं। इन्होंने रथ पर चढऩा स्वीकार किया परन्तु इनके साथ एक कुत्ता भी था जो शुरू से ही इनके साथ चल रहा था।


देवराज इंद्र ने कहा, ‘‘धर्मराज! कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्ग लोक में स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने और कुआं, बावली आदि बनवाने का जो पुण्य होता है उसे क्रोधवश राक्षस हर लेते हैं। आपको अमरता मेरे समान ऐश्वर्य, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई है साथ ही स्वर्गिक सुख भी सुलभ हुए हैं। अत: इस कुत्ते को छोड़ कर आप मेरे साथ चलें।’’


युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘महेन्द्र! भक्त का त्याग करने से जो पाप होता है, उसका कभी अंत नहीं होता। संसार में वह ब्रह्म हत्या के समान माना गया है। यह कुत्ता मेरे साथ है, मेरा भक्त है। फिर इसका त्याग मैं कैसे कर सकता हूं।’’


देवराज इंद्र ने कहा, ‘‘मनुष्य जो कुछ दान, स्वाध्याय अथवा हवन आदि पुण्य कर्म करता है उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि भी पड़ जाए तो उसके फल को राक्षस हर ले जाते हैं इसलिए आप इस कुत्ते का त्याग कर दें। इससे आपको देवलोक की प्राप्ति होगी। आपने भाइयों तथा प्रिय पत्नी द्रौपदी का परित्याग करके अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप देवलोक को प्राप्त किया है फिर इस कुत्ते को क्यों नहीं छोड़ देते? सब कुछ छोड़ कर अब कुत्ते के मोह में कैसे पड़ गए।’’


युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘भगवन! संसार में यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ न किसी का मेल होता है, न विरोध। द्रौपदी तथा अपने भाइयों को जीवित करना मेरे वश की बात नहीं है, अत: मर जाने पर ही मैंने उनका त्याग किया है, जीवित अवस्था में नहीं। शरण में आए हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना-ये चार अधर्म एक ओर तथा भक्त का त्याग दूसरी ओर हो, तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है। इस समय ‘यह कुत्ता मेरा भक्त है’ ऐसा सोच कर इसका परित्याग मैं कदापि नहीं कर सकता।’’


युधिष्ठिर के दृढ़ निश्चय को देखकर कुत्ते के रूप में स्थित धर्मस्वरूप भगवान धर्मराज प्रसन्न होकर अपने वास्तविक रूप में आ गए। वह युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए मधुर वचनों में बोले, ‘‘आप अपने सदाचार, बुद्धि और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति इस दया के कारण अपने पिता का नाम उज्ज्वल कर रहे हैं। क्षुद्र कुत्ते के लिए इंद्र के रथ का भी परित्याग आपने कर दिया है। अत: स्वर्ग लोक में आपकी समानता करने वाला और कोई नहीं है।’’


धर्म, इंद्र, मरुद्गण, अश्विनी कुमार, देवता और देवर्षियों ने पांडुनंदन युधिष्ठिर को रथ में बिठाकर अपने-अपने विमान में सवार होकर स्वर्गलोक को प्रस्थान किया।

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