सेवक और स्वामी का संबंध ही राम कथा की आत्मा

punjabkesari.in Saturday, Oct 12, 2024 - 06:30 AM (IST)

कहते हैं कि जब महर्षि वाल्मीकि को यह ज्ञात हुआ कि उनकी लिखी रामायण से श्रेष्ठ हनुमान की लिखी राम कथा है तो वे बहुत उदास हुए और सोचने लगे कि उनका श्रम व्यर्थ गया। जब हनुमान जी को यह पता चला तो उन्होंने अपने लिखे को फाड़ कर नष्ट कर दिया ताकि वाल्मीकि की रामायण ही पढ़ी जाए। यह साधारण या विशेष घटना हो सकती है लेकिन सेवक और स्वामी के संबंधों की व्याख्या कर देती है। 

यह बंधन क्या है : जो व्यक्ति हमारे लिए, हमारे साथ काम करता है, उसके दो ही कारण हो सकते हैं। एक तो यह जोकि सब जानते हैं कि धन का अभाव पूरा करने के लिए काम करता है। दूसरा लेकिन अधिक महत्वपूर्ण कि पैसों और सुविधाओं के अतिरिक्त हमें अपनी सेवाएं देने में उसे आत्मिक संतोष मिलता है। दोनों स्थितियां सही हैं लेकिन किसे अपनाना है यह तय करने के लिए भी दो ही विकल्प हैं। पहला यह कि अपनी योग्यता से स्वामी के कार्यों को करने में अपनी काबिलियत दिखाए और दूसरा यह कि योग्यता में चाहे कमी हो, लेकिन उसका अपने स्वामी और कार्य के प्रति समर्पण भाव रखना, किसी भी कार्य को सर्वश्रेष्ठ बना देता है। यही राम कथा है। इसीलिए राम का महत्व है और उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया है। यदि हम राम के स्वामी रूप को देखें तो वे अपने सभी सेवकों को अपने पीछे चलने वाला नहीं बनाते बल्कि उन्हें इतना ऊर्जावान बना देते हैं कि वह बिना किसी प्रयास के राम के साथ ही नहीं चलने लगते बल्कि उनसे भी आगे निकलकर स्वामी के कार्यों को पूरा करने में अपनी जान तक जोखिम में डालने को तैयार हो जाते हैं। 

उनकी यही प्रवृत्ति उन्हें स्वामी के रूप में श्रेष्ठतम बना देती है। आज के दौर में कहा जाए कि जब आपके कर्मचारी आपकी सोच के दायरे को लांघकर कोई उपलब्धि हासिल करते हैं तो आप गौरव पाते हैं। यदि आप उस व्यक्ति का सम्मान नहीं करते, उसके काम की तारीफ इसलिए नहीं करते कि वह मात्र एक कर्मचारी है, तो तय है कि तब आप श्रेष्ठ नहीं बल्कि साधारण स्वामी कहलाते हैं। आपने पैसा दिया, उसने आपका काम किया, बात खत्म, दोनों अपने-अपने रास्ते। जरा सोचिए कि हनुमान को क्या पड़ी थी कि वह राम की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए लंका ही जला डालते। सीता को संदेश देना था, दे देते, वापस आ जाते, लेकिन नहीं, उन्हें तो रावण को यह महसूस कराना था कि वह किस से दुश्मनी मोल ले रहा है। 

इसी तरह अंगद राम के दूत बनकर गए थे, चले आते अपना संदेश देकर, लेकिन नहीं, उन्होंने तो अपना पांव जमाना था और दिखाना था कि बड़े-बड़े सूरमा उनका पैर तक नहीं हटा सकते, चाहे जान ही चली जाए। वह यह इसलिए कर पाए क्योंकि भरोसा था कि कुछ भी ऊंच-नीच हो जाएगी तो मालिक सब संभाल लेंगे। इसी तरह राम के दूसरे सेवक थे, नल नील हों या वानर सेना हो। यही नहीं, राम ही नहीं बल्कि उनके भाई लक्ष्मण के प्रति, जो स्वामी नहीं थे, हनुमान का व्यवहार कैसा था! उन्हें मृत्यु से बचाने के लिए चले गए जड़ी बूटी लाने और जब कुछ समझ में नहीं आया तो पूरा पर्वत ही उठा लाए। इसका अर्थ यह है कि स्वामी ही नहीं उसके परिवार की सुरक्षा का दायित्व भी कोई चीज होती है जिसके लिए वही मन:स्थिति बनाए रखनी होती है जो स्वामी के लिए होती है। 

आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में जब धन और तंत्र का सर्वाधिक महत्व है, सेवक और स्वामी की भूमिका नहीं बदली है। हालांकि सभी तरह के उद्यमी, उद्योगपति, व्यापारी और कारोबारी मिलेंगे और उसी तर्ज पर नौकर-चाकर, कर्मचारी और सी.ई.ओ. तथा एम.डी. भी मिलेंगे, लेकिन साख उन्हीं की बन पाती है जो राम और हनुमान की लीक पर चलते हैं। इस संदर्भ में आज के दौर में रतन टाटा को रखा जा सकता है जिनके लिए अपने एक सामान्य वर्कर और उसके लिए कल्याण की भावना रखना सबसे महत्वपूर्ण रहा और उनके निधन पर कर्मचारियों को लगा होगा कि उनके राम का स्वर्गवास हो गया है। इस कड़ी में भारत ही नहीं विश्व के अनेक उद्योगपति आते हैं जिन्होंने चाहे अपने और परिवार के लिए कुछ न छोड़ा हो लेकिन समूची मानवता के कल्याण की भावना रखते हुए बहुत कुछ छोड़ गए हों। 

प्रजातंत्र और रामराज्य : अक्सर इस बात पर बहस होती रहती है कि प्रजातंत्र में रामराज्य की कल्पना को साकार और स्वीकार किया जा सकता है या नहीं, और यदि हां तो फिर उसके मानदंड क्या होने चाहिएं? प्रजातंत्र और राजतंत्र का टकराव यह है कि दोनों एक-दूसरे के विपरीत होने के कारण हमेशा आपस में ही संघर्ष करते दिखाई देते हैं। प्रजातंत्र में राजतंत्र का स्थान परिवार तंत्र ने ले लिया है। इसीलिए देश में परिवार को ही अपने राज्य या देश का शासन चलाने में प्राथमिकता मिलना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिए जाने की दूषित मानसिकता को बल मिलता रहा है। 

राम का अनुसरण :  राम सबके, यहां तक कि हिंदुओं से अलग अन्य धर्मों के लोगों के लिए भी पूज्य हैं, आराध्य हैं और वे उन्हें अपना आदर्श मानते हैं।  यह नास्तिक या आस्तिक होने का प्रश्न नहीं है बल्कि प्रेम, श्रद्धा और आस्था का प्रतीक है। जीवन में राम का यही महत्व है कि सोने-जागने से लेकर मरते समय भी मुंह से राम निकलता है।-पूरन चंद सरीन 
 


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