आध्यात्मिक एवं साधना के आनंद की सर्वोत्तम विधि है "एकांतवास"

Tuesday, Jul 14, 2020 - 10:57 AM (IST)

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हमारी समृद्ध आध्यात्मिक विरासत में एकांतवास का विशेष महत्व है। एकांतवास शब्द का साधारण अर्थ है अकेले रहना, अपने जीवन में कुछ समय भौतिक जंजाल एवं दुनियादारी से पृथक होकर रहना ही एकांतवास है। इस संसार में रहते हुए भौतिक साधनों की संपन्नता होने पर भी कई बार मनुष्य के जीवन में ऐसा समय आता है जब वह शारीरिक व्याधि या मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाता है। मानसिक अवसाद एवं अशांति का समाधान एकांतवास है। हमारे मनीषियों ने एकांत को स्वयं का आंकलन स्वीकार किया है।

सांसारिक तापों से मुक्ति एवं आध्यात्मिक उन्नति में एकांतवास सहायक होता है। इससे मानसिक पटल पर एकाग्रता का संचार होता है । हमारे ऋषि-मुनि भी घने जंगलों एवं पर्वतों पर एकांतवास में रहकर आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति किया करते थे । प्राचीन काल में अनेकों राजा भी अपनी मानसिक समस्याओं के समाधान के लिए ऋषि-मुनियों की शरण में जाया करते थे। एकांत मनुष्य की प्रतिभा एवं सृजन शक्ति को जागृत करता है। अनेकों साहित्यकारों, दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने एकांत में रहकर ही संसार को महान रचनाएं ,सूत्र एवं सिद्धांत प्रदान किए। एकांत मन को नई ऊर्जा एवं चिंतन शक्ति प्रदान करता है।

आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से भी एकांतवास बहुत लाभकारी है। एकांत में ही स्वयं का सूक्ष्मता के साथ आंकलन एवं निरीक्षण किया जा सकता है । पांचों इंद्रियां जो मनुष्य को भौतिकता की दलदल में धकेलती हैं, एकांत इन इंद्रियों की तृष्णा को समाप्त कर देता है, जिससे मनुष्य की अंतर्मुखी वृत्ति बन जाती है। यही अंतर्मुखी वृत्ति साधना के मार्ग को प्रशस्त करती है। संसार की भीड़ में रहते हुए भी मनुष्य चाह कर भी अपनी मानसिक पीड़ा एवं तनाव को कम नहीं कर सकता। संसार के भौतिक विषयों का आकर्षण बड़ा प्रबल है। विषयों का यह आकर्षण मनुष्य की मानसिक शक्तियों की एकाग्रता में सबसे बड़ी बाधा है। हमारे ऋषियों का भी यही चिंतन था कि एकांत में ही स्वयं की स्वयं से मुलाकात होती है।

एकांतवास मनुष्य की बिखरी हुई अंत:करण की शक्तियों को नई ऊर्जा प्रदान करके एकाग्रता प्रदान करता है। मन में उठने वाली तामसिक विचारों की लहरों को एकांतवास शांत कर देता है। चिंतन, प्रतिभा एवं नव सृजन का मार्ग एकांतवास से ही खुलता है।

एकांत से मनुष्य को मानसिक शांति एवं आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती है। स्वयं को सांसारिक मोहमाया एवं तृष्णा के तामसिक वातावरण से अलग करके ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकता है। एकांत में की गई साधना,जप एवं उपासना ईश्वरीय सत्ता का शीघ्र साक्षात्कार करवाने में सहायक होती है। हमारा मानसिक रूप से एकांतवास के लिए तैयार होना भी अनिवार्य है। एकांत में रहकर यदि मन में सांसारिक विचारों की भीड़ है तो फिर एकांत भी व्यर्थ है। योग दर्शन में भी कहा गया है कि- 

‘‘योगी युंजीत सततम् आत्मानं रहसि एकांकी यत चितात्मा निराशीरपरिग्रह:’’      

अर्थात मन, इंद्रियों सहित शरीर को वश में रखते हुए, आशा रहित,संग्रह रहित योगी अकेला एकांत स्थान में स्थित होकर अपनी आत्मा को परमात्मा में लगाए। हमारे ऋषियों का भी यही संदेश था कि सर्वप्रथम स्वयं को एकांत में साधो। आत्म निरीक्षण करते हुए शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम बनो। मानसिक और आत्मिक रूप से सक्षम मनुष्य ही इस संसार रूपी सागर को सफलतापूर्वक पार कर सकता है। एकांतवास आध्यात्मिक एवं साधना के आनंद में निमग्न होने की सर्वोत्तम विधि है। इसी से उस दिव्य तत्व की अनुभूति का मार्ग खुलता है। —आचार्य दीप चंद भारद्वाज
 

Jyoti

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