बदला लेने के लिए चलें ऐसी चाल सांप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे

Tuesday, Apr 11, 2017 - 02:06 PM (IST)

एक बार काशी नरेश नारायण सिंह ने अयोध्या के राजा चंद्रसेन पर अकारण चढ़ाई कर दी। अपने राज्य का विस्तार करना ही कारण था। राजा चंद्रसेन था अहिंसा का पुजारी। उसने सोचा कि युद्ध करने से हजारों आदमी मारे जाएंगे। इसलिए वह रात के समय राज्य तथा राजधानी छोड़कर चला गया। उसने संन्यासी का रूप बनाया और काशी में जाकर एक कुम्हार के मंदिर में रहने लगा। राजा के साथ उसकी एक रानी भी थी। रानी पतिव्रता थी। संकट के समय अपने पति को अकेला छोड़ वह अपने मायके नहीं गई। साध्वी वेश में राजा के ही साथ रहने लगी। रानी गर्भवती थी। समय होने पर एक पुत्र पैदा हुआ। राजा ने उसका नाम रखा सूर्यसेन। जब सूर्यसेन दस वर्ष का हुआ तब उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए हरिद्वार के गुरुकुल में भेज दिया गया।


एक दिन काशी नरेश को पता लगा कि अयोध्या नरेश चंद्रसेन अपनी रानी के साथ साधु वेश में उसी की काशी में रहता है। राजा बहुत कुपित हुआ। उसने दोनों को गिरफ्तार करवा लिया और दोनों को फांसी की सजा दे दी। यह समाचार पाकर उसका पुत्र सूर्यसेन हरिद्वार से आया और माता-पिता के अंतिम दर्शन करने कारागार में गया। पुत्र को प्यार करके पिता ने उपदेश दिया-
न अधिक देखना, न थोड़ा देखना।
हिंसा कभी प्रति हिंसा के द्वारा पराजित नहीं होती।
लड़ाई को लड़ाई के द्वारा जीता नहीं जा सकता।
जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती।
हिंसा, लड़ाई और शत्रुता को प्रेम ही जीत सकता है।


जब अयोध्या नरेश को रानी के साथ फांसी दे दी गई तब राजकुमार सूर्यसेन ने कुछ सोच-समझ कर काशी नरेश के महावत के यहां नौकरी कर ली। काशी नरेश को मालूम न था कि अयोध्या नरेश का कोई पुत्र भी था।


सूर्यसेन को मुरली बजाने का शौक था। प्रात: चार बजे वह प्रतिदिन बड़े प्रेम से मुरली बजाया करता था। एक दिन उसकी मुरली की मधुर ध्वनि काशी नरेश के कानों में भी जा पहुंची। प्रात: राजा ने महावत से पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में मुरली कौन बजाता है?’’


महावत ने कहा, ‘‘एक आवारा लड़के को मैंने नौकर रखा है। हाथियों को पानी पिला लाता है। वही मुरली बजाया करता है।’’


काशी नरेश ने सूर्यसेन को अपना ‘शरीर रक्षक’ बना लिया। एक दिन काशी नरेश शिकार खेलने गया, घने जंगल में वह अपने साथियों से छूट गया। एक घोड़े पर राजा था, दूसरे पर था उसका शरीर रक्षक सूर्यसेन। थक कर दोनों एक घने वृक्ष की छाया में जा बैठे। राजा को कुछ आलस्य मालूम हुआ। गर्मी के दिन थे ही, सूर्यसेन की गोद को तकिया बनाकर राजा सो गया।


उसी समय सूर्यसेन को ध्यान आया कि यह वही काशी नरेश है जिसने उसके माता-पिता को बिना अपराध फांसी पर लटकाया था। आज मौका मिला है, क्यों न माता-पिता के खून का बदला इससे चुका लूं। उसकी आंखों में खून उतर आया। प्रतिशोध की ज्वाला छाती में धधक उठी। उसने म्यान से तलवार खींच ली।


उसी समय पिता का एक उपदेश उसके मस्तिष्क में आ गया- ‘‘हिंसा कभी प्रति हिंसा के द्वारा पराजित नहीं होती।’’ 


सूर्यसेन ने चुपके से अपनी तलवार म्यान में रख ली। पिता की वसीयत मेटने का हौसला न रहा। उसी समय राजा की आंखें खुल गईं। बैठकर काशी नरेश ने कहा, ‘‘बेटा! बड़ा बुरा सपना देखा है मैंने। ऐसा मालूम हुआ कि तुम मेरा सिर काटने के लिए अपनी नंगी तलवार हाथ में लिए हो।’’


सूर्यसेन ने फिर तलवार खींच ली और बोला, ‘‘आपका सपना गलत नहीं है। मैं अयोध्या नरेश का राजकुमार हूं। आपने बिना अपराध मेरे साधु स्वरूप माता-पिता का वध कराया है, मैं आज उसका बदला लूंगा। जब तक आप अपनी तलवार म्यान से निकालेंगे तब तक तो मैं आपका सिर धड़ से पृथक कर दूंगा। आपके अत्याचार का बदला लेना ही चाहिए।’’


दूसरा उपाय न देख राजा ने हाथ जोड़े और कहा, ‘‘बेटा! मुझे क्षमा कर दो, मैं तुमसे अपने प्राणों की भिक्षा मांगता हूं। मैं आज तुम्हारी शरण हूं।’’


‘‘अगर मैं आपको छोड़ता हूं तो आप मुझे मरवा डालेंगे।’’


‘‘नहीं बेटा! विश्वनाथ बाबा की शपथ। मैं तुमको कोई भी सजा न दूंगा।’’

 इसके बाद दोनों ने हाथ में हाथ पकड़ कर अपनी प्रतिज्ञा निभाने की शपथ खाई। तब सूर्यसेन ने अपना सारा भेद खोल दिया। अंत में कहा, ‘‘मरते समय मेरे पिता ने मुझे जो उपदेश दिया था, उसी के कारण आज आपकी जान बची है।’’


‘‘वह क्या उपदेश है?’’ राजा ने प्रश्न किया।


‘‘अधिक न देखना, न थोड़ा देखना। हिंसा को कभी प्रतिहिंसा के द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता।’’ सूर्यसेन ने कहा।


‘‘इसका अर्थ क्या है?’’ राजा ने पूछा।


सूर्यसेन ने समझाया, ‘‘अधिक न देखना का अर्थ है कि हिंसा को अधिक दिनों तक अपने मन में नहीं रखना चाहिए। न थोड़ा देखना का मतलब यह है कि अपने बंधु या मित्र का जरा भी दोष देखकर उससे सहज ही संबंध मत तोडऩा। अब रहा हिंसा को प्रतिहिंसा के द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता, इसका अर्थ प्रत्यक्ष है। यदि मैं आपको प्रतिहिंसा की भावना से मार डालता तो परिणाम यही होता न कि आपके पक्ष वाले मुझे मार डालते। आज मेरे पिता के उपदेश ने हम दोनों के प्राण बचाए हैं। जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती है, यह सिद्धांत कितना सच्चा है। आपने मेरे जीवन की रक्षा करके महत्वपूर्ण काम किया है। मैंने भी आपके जीवन की रक्षा करके कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है।’’


‘‘बेटा! तूने तो मेरा पाप नाश कर दिया है। पुण्य का सूर्य प्रकाशित हो उठा है। गद्गद् कंठ होकर राजा ने लड़के को छाती से लगा लिया। राजधानी में लौटकर काशी नरेश ने सूर्यसेन का राजपाट उसे लौटा दिया। अयोध्या नरेश सूर्यसेन को काशी नरेश ने अपनी राजकुमारी ब्याह दी।’’


अहिंसा की तलवार ने जो काम किया, वह हिंसा की तलवार नहीं कर सकती थी। हिंसा से दोनों राजवंश डूब जाते। किसी की आत्मा को किसी भी प्रकार से दुख पहुंचाना ही हिंसा है।

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