स्वामी प्रभुपाद: जीव न तो शरीर का स्वामी होता है, न इसके कर्मों तथा फलों का

punjabkesari.in Sunday, Nov 16, 2025 - 12:27 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

न कर्तृव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥5.14॥

अनुवाद एवं तात्पर्य : शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।

PunjabKesari Swami Prabhupada

जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जाएगा, जीव परमेश्वर की शक्तियों में से एक है, किन्तु वह पदार्थ से भिन्न है, जो भगवान की अपरा प्रकृति है। संयोगवश पराप्रकृति या जीव अनादिकाल से (अपरा) प्रकृति के संपर्क में रहा है। जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है, वह कर्मों और उनके फलों का कारण है।

ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुए मनुष्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है। अनंतकाल में यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है। ज्यों ही जीव शरीर के कार्यों से पृथक हो जाता है, त्योंही वह कर्मबंधन से भी मुक्त हो जाता है। जब तक वह शरीर रूपी नगर में निवास करता है, तब तक वह इसका स्वामी प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह न तो इसका स्वामी होता है और न इसके कर्मों तथा फलों का नियंता ही।

PunjabKesari Swami Prabhupada

वह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघर्ष में रत प्राणी है। सागर की लहरें उसे उछालती रहती हैं, किन्तु उन पर उसका वश नहीं चलता। उसके उद्धार का एकमात्र साधन है कि दिव्य कृष्णभावनामृत द्वारा समुद्र के बाहर आए। इसी के द्वारा समस्त अशांति से उसकी रक्षा हो सकती है।

PunjabKesari Swami Prabhupada


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Editor

Prachi Sharma