स्वामी प्रभुपाद: इस तरह के व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त होते हैं

punjabkesari.in Sunday, Dec 08, 2024 - 05:00 AM (IST)

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मय्यासक्तमनाः: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : श्री भगवान ने कहा : हे पृथापुत्र, अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण रह कर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संदेहरहित जान सकते हो।

भगवद्गीता के इस सातवें अध्याय में कृष्णभावनामृत की प्रकृति का विशद वर्णन हुआ है। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और वह इन्हें किस प्रकार प्रकट करते हैं, उसका वर्णन इसमें हुआ है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में इसका भी वर्णन है कि चार प्रकार के भाग्यशाली व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त होते हैं और चार प्रकार के भाग्यहीन व्यक्ति कृष्ण की शरण में कभी नहीं आते।

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प्रथम छ: अध्यायों में जीवात्मा को अभौतिक आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है जो विभिन्न प्रकार के योगों द्वारा आत्म साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है। छठे अध्याय के अंत में स्पष्ट कहा गया है कि मन को कृष्ण पर एकाग्र करना या कृष्णभावनामृत ही सर्वोच्च योग है। मन को कृष्ण पर एकाग्र करने से ही मनुष्य परमसत्य को पूर्णतया जान सकता है, अन्यथा नहीं। अंतर्यामी परमात्मा की अनुभूति परमसत्य का पूर्णज्ञान नहीं है क्योंकि यह आंशिक होती है। कृष्ण ही पूर्ण तथा वैज्ञानिक ज्ञान हैं और कृष्णभावनामृत में ही मनुष्य को सारी अनुभूति होती है।

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पूर्ण कृष्णभावनामृत होने पर मनुष्य जान पाता है कि कृष्ण ही नि:संदेह परम ज्ञान हैं। विभिन्न प्रकार के योग तो कृष्णभावनामृत के मार्ग के सोपान सदृश हैं। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, वह स्वत: ब्रह्मज्योति और परमात्मा के विषय में पूरी तरह जान लेता है। कृष्णभावनामृत योग का अभ्यास करके मनुष्य सभी वस्तुओं को यथा परमसत्य, जीवात्माएं, प्रकृति तथा साज-सामग्री सहित उनके प्राकट्य को पूरी तरह जान सकता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि छठे अध्याय के अंतिम शोक के अनुसार योग का अभ्यास करे। परमेश्वर कृष्ण पर ध्यान की एकाग्रता को नवधा भक्ति के द्वारा संभव बनाया जाता है जिसमें श्रवणम् अग्रणी एवं सबसे महत्वपूर्ण है।  अत: श्री कृष्ण से या कृष्णभावनाभावित भक्तों के मुखों से सुनकर ही कृष्ण तत्व को जाना जा सकता है।  

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Content Editor

Prachi Sharma

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