स्वामी प्रभुपाद: सिद्धि की अवस्था समाधि

punjabkesari.in Sunday, May 26, 2024 - 07:48 AM (IST)

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यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।6.20।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।

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वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वत:।।6.21।।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।

यस्मिन्स्थितो न दुखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।।6.23।।

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अनुवाद एवं तात्पर्य : सिद्धि की अवस्था में, जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आप में आनंद उठा सकता है। उस आनंदमयी स्थिति में वह दिव्य इंद्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है।

इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता। यह नि:संदेह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है। योगाभ्यास से मनुष्य भौतिक धारणाओं से क्रमश: विरक्त होता जाता है। यह योग का प्रमुख लक्षण है। इसके बाद वह समाधि में स्थित हो जाता है, जिसका अर्थ यह होता है कि दिव्य मन तथा बुद्धि के द्वारा योगी अपने आपको परमात्मा समझने का भ्रम न करके परमात्मा की अनुभूति करता है। योगाभ्यास बहुत कुछ पतञ्जलि की पद्धति पर आधारित है। पतञ्जलि पद्धति में दिव्य आनंद को स्वीकार किया गया है।

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Content Editor

Prachi Sharma

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