स्वामी प्रभुपाद: योगाभ्यास की विधि

Sunday, Mar 31, 2024 - 11:04 AM (IST)

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शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः:।
 नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥6.11॥

तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥6.12॥

अनुवाद:  योगाभ्यास के लिए योगी एकांत स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे।  आसन न तो बहुत ऊंचा हो, न बहुत नीचा। यह पवित्र स्थान में स्थित हो। योगी को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाए और मन, इंद्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिंदू पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करें।

तात्पर्य : ‘पवित्र स्थान’ तीर्थस्थान का सूचक है। भारत में योगी तथा भक्त अपना घर त्याग कर प्रयाग, मथुरा, वृंदावन, ऋषिकेश तथा हरिद्वार जैसे पवित्र स्थानों में वास करते हैं और एकांत स्थान में योगाभ्यास करते हैं, जहां यमुना तथा गंगा जैसी नदियां प्रवाहित होती हैं, किन्तु प्राय: ऐसा करना सबों के लिए विशेषतया पाश्चात्यों के लिए संभव नहीं है। 

बड़े-बड़े शहरों की तथाकथित योग समितियां भले ही धन कमा लें किन्तु वे योग के वास्तविक अभ्यास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होती हैं। जिसका मन विचलित है और जो आत्मसंयमी नहीं है, वह ध्यान का अभ्यास नहीं कर सकता। अत: वृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि कलियुग (वर्तमान युग) में जबकि लोग अल्पजीवी, आत्म साक्षात्कार में मंद तथा चिंताओं से व्यग्र रहते हैं, भगवत्प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन है : 

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥

अर्थात : ‘कलह और दंभ के इस युग में मोक्ष का एकमात्र साधन भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करना है। कोई दूसरा मार्ग नहीं है। कोई दूसरा मार्ग नहीं है। कोई दूसरा मार्ग नहीं है।’

Prachi Sharma

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