स्वामी प्रभुपाद: समान भाव से देखना

Sunday, Mar 24, 2024 - 08:22 AM (IST)

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सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। 
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धि विशिष्यते॥6.9॥

भावार्थ : जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय, मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालु, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है तो वह और भी उन्नत (विशिष्ट) माना जाता है।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः:
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः:॥6.10॥

भावार्थ : योगी को चाहिए कि वह सदैव अपना शरीर मन तथा आत्मा परमेश्वर में लगाए। एकांत स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।

श्री कृष्ण की अनुभूति ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान के विभिन्न रूपों में होती है। संक्षेप में कृष्णभावनामृत का अर्थ है: भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर प्रवृत्त रहना, किन्तु जो लोग निराकार ब्रह्म अथवा अंतर्यामी परमात्मा के प्रति आसक्त होते हैं, वे भी आंशिक रूप से कृष्णभावनाभावित हैं क्योंकि निराकार ब्रह्म कृष्ण की आध्यात्मिक किरण है और परमात्मा कृष्ण का सर्वव्यापी आंशिक विस्तार होता है। इस प्रकार निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृष्णभावनाभावित होते हैं। 

प्रत्यक्ष कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सर्वोच्च योगी होता है क्योंकि ऐसा भक्त जानता है कि ब्रह्म और परमात्मा क्या हैं। 


 

Prachi Sharma

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