सूर्य आराधना का मुख्य केंद्र है ये देव मंदिर

Sunday, May 12, 2019 - 01:49 PM (IST)

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बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित देव सूर्य मंदिर एक ऐसा मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमोन्मुख है। छठ के अवसर पर भगवान सूर्य को अघ्र्य अर्पित करके यहां लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं का तांता लगता है। मंदिर के निर्माण काल के संबंध में उसके बाहर संस्कृत में लिखे श्लोक के अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीतने के बाद राजा इला पुत्र ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण प्रारंभ करवाया था।

मंदिर के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि इसे स्वयं देवताओं के वास्तु शिल्पी विश्वकर्मा ने बनाया था। भगवान भास्कर का यह विशाल मंदिर अपने सौंदर्य एवं शिल्प के कारण सैंकड़ों वर्षों से श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्ति चोरों, तस्करों तथा आम जनता के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। जिस तरह पुरी के मंदिर का शिल्प है ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प है देव के इस प्राचीन सूर्य मंदिर का। देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों में विद्यमान हैं। पूरे देश में देव का ही एकमात्र सूर्य मंदिर पूर्वोन्मुख नहीं होकर पश्चिमोन्मुख है। करीब एक सौ फुट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य एवं वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। मंदिर के बारे में यह भी कहा गया है कि एक आयल नाम के राजा थे जो किसी ऋषि के श्राप वश श्वेत कुष्ठ से पीड़ित थे। भूखे, प्यासे राजा आयल भटक रहे थे कि उन्हें एक छोटा-सा सरोवर दिखाई पड़ा, जिसके किनारे वह पानी पीने के लिए गए। उन्होंने अंजुलियों में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में ही वह घोर आश्चर्य में डूब गए कि उनके शरीर के जिन-जिन जगहों पर पानी के छींटे पड़े थे, उन जगहों के श्वेत दाग जाते रहे। इससे प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो राजा ने अपने वस्त्रों की परवाह नहीं की और वह सरोवर के गंदे पानी में कूद गए।

कहा जाता है कि इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह मिट गया। अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा आयल ने इसी वन प्रांत में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा आयल को स्वप्र आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है उन्हें निकालकर वहीं मंदिर बनवाएं और उसमें प्रतिस्थापित राजा आयल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया। 

इस मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों से किया था। इतना सुंदर मंदिर कोई साधारण शिल्पी नहीं बना सकता। देश में जहां भी सूर्य मंदिर है उनका मुख पूर्व की ओर है लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी ऊषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता, अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।

कहा जाता है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों तथा मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा, तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को न तोड़े, यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला कि यदि सचमुच में तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो रात भर का समय देता हूं। यदि इसका मुख पूर्व से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोड़ूंगा। पुजारियों ने सिर झुका कर इसे स्वीकार कर लिया और रात भर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सवेरे उठते ही किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुख पूर्व से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुख पश्चिम की ओर ही है। मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल, मध्याचल तथा अस्ताचल के रूप में विद्यमान हैं। बिना सीमैंट और चूने व गारे का प्रयोग किए पत्थरों को विभिन्न आकार में काटकर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व अद्भुत लगता है। चैत्र व कार्तिक माह में छठ में श्रद्धालुओं की भीड़ से मंदिर की शोभा देखते ही बनती है।
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