श्रीमद्भगवद्गीता: वे भगवान को नहीं समझ सकते

Monday, Dec 11, 2017 - 09:40 AM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 7: भगवद्ज्ञान 


शुद्ध भक्त मोहग्रस्त नहीं होते 


इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतपा।।27।।


अनुवाद एवं तात्पर्य: हे भरतवंशी! हे शत्रु विजेता! समस्त जीव, जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वंद्वों से मोहग्रस्त होकर आसक्ति (मोह) को प्राप्त होते हैं।


जीव की स्वाभाविक स्थिति शुद्धज्ञान रूप परमेश्वर की अधीनता की है। जब मनुष्य इस शुद्धज्ञान से मोहवश दूर हो जाता है तो वह माया के वशीभूत हो जाता है और भगवान को नहीं समझ पाता। यह माया इच्छा तथा घृणा के द्वंद्व रूप में प्रकट होती है। इसी इच्छा तथा घृणा के कारण मनुष्य परमेश्वर से तदाकार होना चाहता है और भगवान के रूप में कृष्ण से ईर्ष्या करता है। किन्तु शुद्ध भक्त जो इच्छा तथा घृणा से मोहग्रस्त नहीं होते, वे समझ सकते हैं कि भगवान श्री कृष्ण अपनी अंतरंगा शक्ति से प्रकट होते हैं पर जो द्वैत तथा अज्ञान के कारण मोहग्रस्त हैं, वे यह सोचते हैं कि भगवान भौतिक (अपरा) शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। यही उनका दुर्भाग्य है।


ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति मान-अपमान, दुख-सुख, स्त्री-पुरुष, अच्छा-बुरा, आनंद पीड़ा जैसे द्वंद्वों में रहते हुए सोचते हैं, ‘‘यह मेरी पत्नी है, यह मेरा घर है, मैं इस घर का स्वामी हूं, मैं इस स्त्री का पति हूं।’’ 


ये ही मोह के द्वंद्व हैं। जो लोग ऐसे द्वंद्वों से मोहग्रस्त होते हैं, वे निपट मूर्ख हैं और वे भगवान को नहीं समझ सकते। 
    
(क्रमश:)

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