श्रीमद्भगवद्गीता: लड़खड़ाए मन से जीना है नपुंसकता का जीवन

Sunday, Jan 14, 2018 - 08:49 AM (IST)

जीओ गीता के संग, 
सीखो जीने का ढंग 

गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद जी

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। —गीता 2/3


क्लैब्यम्, मा, स्म, गम:, पार्थ, न, एतत्, त्त्वयि, उपद्यते,
क्षुद्रम्, हृदयदौर्बल्यम्, त्यक्त्त्वा, उत्तिष्ठ, परंतप।।


भावार्थ: दुर्बल, कमजोर, लडख़ड़ाए मन से जीना, नपुंसकता का-सा जीवन है। मनुष्य जीवन और ऐसी नपुंसकता किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। इसलिए मन की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़ो, उत्साह से अपने कर्तव्य कर्म में लगो! गीता का यह श्लोक मानसिक मजबूती के लिए बहुत सीधी, स्पष्ट और कुछ कड़ी प्रेरणा है। मनुष्य मात्र के पास विचारों की बहुत बड़ी शक्ति है जिसे वह नकारात्मक सोच, व्यर्थ चिंता, निरर्थक ऊहापोह उधेड़बुन में उलझ कर अथवा किसी न किसी वृत्ति के अधीन होकर गंवा बैठता है! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या-द्वेष आदि किसी भी वृत्ति के अत्यधिक प्रभाव बना लेने से अंदर हृदय कमजोर होता है मानसिक शक्ति खोखली होने लगती है जिससे शारीरिक स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है।

 

 यह बात आज चिकित्सा पद्धति में भी स्वीकार की जाने लगी है कि वृत्तियों की अधिकता शारीरिक व्यवस्था को बिगाड़ती है। जैसे क्रोध की अधिकता मानसिक शांति और शक्ति के साथ-साथ रक्तचाप और इस माध्यम से पूरे शरीर की स्थिति बिगाड़ देती है। गीता में कृष्ण कहते हैं-हे मानव!  यह तेरे लिए उचित नहीं। अपने हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को छोड़। नकारात्मक, अशुभ विचार मन में न आने दे। पता नहीं क्या होगा, अब मैं स्वस्थ हो भी पाऊंगा या नहीं? ऐसे विचार हृदय को कमजोर करते जाएंगे। ऐसे नकारात्मक विचार शरीर को कैसे जल्दी स्वस्थ होने देंगे या स्वस्थ रहने देंगे। विचारों में दृढ़ता लाओ अपने को ऊंचा उठाओ अर्थात विचारों को स्वस्थ, शान और ऊंचाई पर रखो तथा अनुभव करो, अपने भीतर स्वाभाविक शांति, स्थिरता और इसी से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ।

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