जीवन के दुख-सागर को पार करने के लिए अवश्य पढ़ें...

Thursday, Apr 06, 2017 - 04:50 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्ल्वेनैव वृजिनं. संतरिष्यसि॥ 36॥


अपि—भी; चेत्—यदि; असि—तुम हो; पापेभ्य:—पापियों से; सर्वेभ्य:—समस्त; पा-कृत्- तम:—सर्वाधिक पापी; सर्वम्—ऐसे समस्त पापकर्म; ज्ञान-प्लवेन—दिव्यज्ञान की नाव द्वारा; एव—निश्चय ही; वृजिनम्—दुखों के सागर से; संतरिष्यसि—पूर्णतया पार कर जाओगे।

अनुवाद : यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाए तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होंगे।

तात्पर्य : श्रीकृष्ण के संबंध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरंत ही ऊपर उठ सकता है। यह भौतिक जगत् कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल। सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन संघर्ष अत्यंत कठिन है।

यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है। भगवान् से प्राप्त पूर्णज्ञान मुक्ति का पथ है। कृष्णभावनामृत की नाव अत्यंत सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यंत उदात्त भी।    

(क्रमश:)
 

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