श्रीमद्भगवद्गीता: ‘शत्रु’ को पहचानों

punjabkesari.in Wednesday, Sep 07, 2022 - 04:01 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
इंद्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैॢवमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।

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अनुवाद : मन तथा बुद्धि जैसी इंद्रियां ही ‘काम’  के निवास स्थान हैं। इनके द्वारा ‘काम’  जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढंक कर उसे मोहित कर लेता है। 

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तात्पर्य : चूंकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अत: भगवान श्री कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहां पर है। मन समस्त इंद्रियों के कार्यकलापों का केंद्र बिंदू है अत: जब हम इंद्रिय विषयों के संबंध में सुनते हैं तो मन इंद्रिय तृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है। इस तरह मन तथा इंद्रियां ‘काम’  की शरणस्थली बन जाती हैं। इसके बाद बुद्धि ऐसी ‘काम’  पूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होती है जिससे उसमें अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इंद्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है। आत्मा को भौतिक इंद्रियों का भोग करने की लत पड़ जाती है। जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है। जो मनुष्य त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप मान बैठता है जो देह के विकारों को स्वजन समझता है उसे बैल के समान समझना चाहिए। (क्रमश:)
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Content Writer

Jyoti

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