श्रीमद्भागवत गीता: अपने मन को न होने दें विचलित

Sunday, Jun 12, 2022 - 10:45 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त : समाचरन् ।। 26।।



अनुवाद : विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं जिससे कि उनके मन विचलित न हों। अपितु भक्तिभाव से कार्य करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाए जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो।

वेदैश्च सर्वैरहर्मेव वेद्य: - यह सिद्धांत सम्पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों की पराकाष्ठा है। सारे अनुष्ठान, सारे यज्ञ-कृत्य तथा वेदों में भौतिक कार्यों के लिए जो भी निर्देश हैं, उन सबके समेत सारी वस्तुएं कृष्ण को जानने के निमित्त हैं जो हमारे जीवन के चरमलक्ष्य हैं।



चूंकि बद्ध-जीव इंद्रियतृप्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते, अत: वे वेदों का अध्ययन इसी दृष्टि से करते हैं किंतु सकाम कर्मों तथा वैदिक अनुष्ठानों के द्वारा नियमित इंद्रियतृप्ति के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है। अत: कृष्णभावनामृत में सिद्ध जीव को चाहिए कि अन्यों को कार्य करने या समझने में बाधा न पहुंचाए अपितु उन्हें यह प्रदॢशत करे कि किस प्रकार कृष्ण की सेवा में समॢपत हो सकते हैं।

कृष्णभावना भावित विद्वान व्यक्ति इस तरह कार्य करे कि इंद्रियतृप्ति के लिए कार्य करने वाले अज्ञानी पुरुष सीख सकें कि किस तरह कार्य और आचरण करना चाहिए। यद्यपि अज्ञानी पुरुष को उसके कार्यों में छेडऩा ठीक नहीं होता परन्तु यदि वह रंचभर भी कृष्णभावना भावित है तो वह वैदिक विधियों की परवाह न करते हुए सीधे भगवान की सेवा में लग सकता है।  

Jyoti

Advertising