श्रीमद्भगवद्गीता: कैसे मिलती है ‘पापों’ से मुक्ति

Sunday, Mar 13, 2022 - 12:06 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 
यथारूप 
व्याख्याकार : 
स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 1
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
यज्ञशिष्टाशिन: संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे यज्ञ में अॢपत किए भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं। अन्य लोग, जो अपने इंद्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं, वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं। भगवद्भक्तों या कृष्णभावनाभावित पुरुषों को संत कहा जाता है। 

वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहते हैं जैसा कि ब्रह्म संहिता में कहा गया है- प्रेमाञ्जनच्छुरिभक्ति विलोचनेन संत: सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। 

संतगण श्रीभगवान गोविंद (समस्त आनंद के दाता) या मुकुंद (मुक्ति के दाता) या कृष्ण (सबों को आकृष्ट करने वाले पुरुष) के प्रगाढ़ प्रेम में मग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परम पुरुष को अॢपत किए बिना ग्रहण नहीं करते।

फलत: ऐसे भक्त पृथक-पृथक भक्ति साधनों के द्वारा, यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करते रहते हैं जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमय संगति के कल्मष से दूर रहते हैं। 

सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यों को पूर्ण कृष्णभावनामृत में संकीर्तन यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए, अन्यथा संसार में शांति या सुख नहीं हो सकता।
 

Jyoti

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