श्रीमद्भगवद्गीता: ‘दिव्य चेतना’ की प्राप्ति
punjabkesari.in Sunday, Aug 15, 2021 - 11:45 AM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : जब तु हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाए, तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त हो जाएगी। ‘कोई समाधि में है’ इस कथन का अर्थ यह होता है कि वह पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है अर्थात उसने पूर्ण समाधि में ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान को प्राप्त कर लिया है। आत्म साक्षात्कार की सर्वोच्च सिद्धि यह जान लेना है कि मनुष्य कृष्ण का शाश्वत दास है और उसका एकमात्र कर्तव्य कृष्णभावनामृत में अपने सारे कर्म करना है। यही जीवन का सार है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या भगवान के एकनिष्ठ भक्त को न तो वेदों की अलंकारमय वाणी से विचलित होना चाहिए न ही स्वर्ग जाने के उद्देश्य से सकाम कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए। कृष्णभावनामृत में मनुष्य कृष्ण के सानिध्य में रहता है और कृष्ण से प्राप्त सारे आदेश उस दिव्य अवस्था में समझे जा सकते हैं। ऐसे कार्यों के परिणामस्वरूप निश्यात्मक ज्ञान की प्राप्ति निश्चित है। उसे कृष्ण या उनके प्रतिनिधि गुरु की आज्ञाओं का पालन मात्र करना होगा। (क्रमश:)