श्रीमद्भागवत गीता: ‘जन्म-मृत्यु’ के चक्र से मुक्ति

Tuesday, Aug 03, 2021 - 01:07 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्।। 51।।


अनुवाद तथा तात्पर्य : भगवद्भक्ति में लगे रह कर बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जो समस्त दुखों से परे है। अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत ऐसा दुखमय स्थान है जहां पद-पद पर संकट हैं।

केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानी पुरुष यह सोच कर कि कर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि इस संसार में कहीं भी कोई शरीर दुखों से रहित नहीं है।

संसार में सर्वत्र जीवन के दुख-जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि विद्यमान हैं किंतु जो अपने वास्तविक स्वरूप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान की स्थिति को समझ लेता है, वही भगवान की प्रेमा-भक्ति में लगता है।

फलस्वरूप वह बैकुंठ लोक जाने का अधिकारी बन जाता है जहां न तो भौतिक कष्टमय जीवन है, न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान की अलौकिक स्थिति को भी जान लेना। जो भ्रमवश यह सोचता है कि जीव की स्थिति तथा भगवान की स्थिति एक समान है, वह अंधकार में है और स्वयं भगवद्भक्ति करने में असमर्थ है।

वह अपने आपको प्रभु मान लेता है और इस तरह जन्म-मृत्यु की पुनरावृत्ति का पथ चुन लेता है। किंतु जो यह समझते हुए कि उसकी स्थिति सेवक की है, अपने को भगवान की सेवा में लगा देता है, वह तुरंत ही बैकुंठ लोक जाने का अधिकारी बन जाता है। भगवान की सेवा कर्मयोग या बुद्धियोग कहलाती है, जिसे स्पष्ट शब्दों में भगवद्भक्ति कहते हैं। (क्रमश:)

Jyoti

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