श्रीमद्भगवद्गीता- अस्थायी हैं ‘भौतिक सुख’

Sunday, May 30, 2021 - 01:32 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।। 42।।
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगङ्क्षत प्रति।। 43।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारमय शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इंद्रिय तृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। साधारणत: सब लोग अत्यंत बुद्धिमान नहीं होते और वे अज्ञान के कारण वेदों के कर्मकांड भाग में बताए गए सकाम कर्मों के प्रति आसक्त रहते हैं। वे स्वर्ग में जीवन का आनंद उठाने के लिए इंद्रिय तृप्ति करने वाले प्रस्तावों से अधिक और कुछ नहीं चाहते जहां मदिरा तथा तरुणियी उपलब्ध हैं और भौतिक ऐश्वर्य सर्वसामान्य है।ऐसे लोगों का भवबंधन से मुक्ति में कोई श्रद्धा नहीं होती और वे वैदिक यज्ञों की तड़क-भड़क में विशेष आसक्त रहते हैं। वे सामान्यतया विषयी होते हैं और जीवन में स्वॢगक आनंद के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। अत: ये लोग वे हैं जो भौतिक जगत के स्वामी बन कर ऐसे भौतिक अस्थायी सुख के प्रति आसक्त हैं परंतु वे नहीं जानते कि ये उन्हें मोक्ष नहीं दिलवा सकते।  (क्रमश:)

Jyoti

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