Srimad Bhagavad Gita: इंद्रियों पर विजय पाकर यहां आकर खत्म होती है स्थिर जीवन की खोज

Friday, Mar 15, 2024 - 08:45 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जिसका अंत:करण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इन्द्रियां भली-भांति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है।’’ (6.8)

ज्ञान स्वयं के बारे में जागरूकता है और जब कोई इसे प्राप्त करता है तो वह संतुष्ट होता है। विज्ञान की व्याख्या चीजों और लोगों के बारे में जिज्ञासा के रूप में की जा सकती है। इन सभी जिज्ञासाओं का उनके उत्तरों के साथ संग्रह और कुछ नहीं, बल्कि वह ज्ञान है, जो हमेशा अतीत का और पुस्तकों में उपलब्ध होता है। आंतरिक यात्रा के प्रारंभिक चरणों में जिज्ञासा सहायक होती है लेकिन इसकी सीमा होती है। यहां तक कि विज्ञान को भी अपनी सीमाओं से संतुष्ट होना पड़ता है, जैसे कि अनिश्चितता के सिद्धांत और कणों एवं तरंगों के संबंध में द्वैत आदि।

दूसरी ओर, जबकि अव्यक्त अस्तित्व शाश्वत है, व्यक्त (प्रकट) निरंतर बदलता रहता है। जिज्ञासा उत्तर ढूंढती है, जबकि अस्तित्व अनुभवों के रूप में उत्तर देती है, जो हममें से प्रत्येक के लिए अलग-अलग हैं और उन्हें साझा करने का कोई तरीका नहीं है। ज्ञान में संतुष्टि का मतलब यह नहीं है कि सभी सवालों के जवाब मिल गए हैं, बल्कि इसका मतलब यह है कि किसी की जिज्ञासा खत्म हो गई है जो एक साक्षी या दृष्टा की स्थिति के अलावा और कुछ नहीं है। यह चीजों, लोगों और परिस्थितियों को, बिना किसी आकलन या अपेक्षा के, यथार्थ रूप में स्वीकार करना है, जो चुनाव रहित जागरूकता की स्थिति है।


श्रीकृष्ण ने स्थिर रहने और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की बात कही। जब कोई हमारी प्रशंसा करता है, तो हम यह मान लेते हैं कि हम इसके एक-एक अंश के योग्य हैं और जब कोई आलोचना करता है तो क्रोधित हो जाते हैं। यह जानकर कि प्रशंसा एक मीठा जहर और एक जाल है, हम आसानी से प्रशंसा और आलोचना के ध्रुवों को पार करने की अपनी यात्रा शुरू कर सकते हैं। जब हम प्रशंसा, आलोचना, सोना, मिट्टी और चट्टान को एक समान मानकर समत्व प्राप्त करते हैं तो हम स्थिर होते हैं।

 

Niyati Bhandari

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