Srimad Bhagavad Gita: बुद्धिमत्ता स्वयं में है

Friday, Dec 01, 2023 - 12:35 PM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: एक बार स्रष्टा सोच रहा था कि उस बुद्धिमत्ता को कहां छिपाया जाए, जिसे पाकर कुछ भी पाने को शेष न रहे। उसकी पत्नी एक ऊंचे पहाड़ पर या गहरे समुद्र में रखने का सुझाव देती है लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि आदमी चढ़ सकता है और तैर भी सकता है। तब इस बुद्धिमत्ता को मनुष्य के अंदर ही रखने का निर्णय लिया गया, जबकि मनुष्य इसे जीवन भर बाहर खोजता रहता है। इसे समझना आसान हो जाता है जब श्री कृष्ण कहते हैं, ‘‘निश्चित रूप से, इस दुनिया में कुछ भी ज्ञान की तरह पवित्र नहीं है। नियत समय में, जो योग में सिद्ध हो जाता है, वह इसे स्वयं में पाता है।’’ (4.38)



सार यह है कि ‘बुद्धि’ स्वयं में है और एक समान मात्रा में सभी के पास है। यह सिर्फ अपने और दूसरों में इसे साकार करने का सवाल है। श्री कृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘श्रद्धावान और जितेंद्रिय ज्ञान प्राप्त करके परम-शांति पाते हैं।’’ (3.39)

वहीं वह चेतावनी देते हैं कि, ‘‘श्रद्धा रहित अज्ञानी नष्ट हो जाता है और उसके लिए इस दुनिया या अन्य में कोई खुशी नहीं है।’’ (3.40)



गीता में ‘श्रद्धा’ एक मूल उपदेश है। भक्ति या सकारात्मक सोच इसके निकटतम अर्थ हैं। श्री कृष्ण कई जगहों पर श्रद्धा की बात करते हैं और अर्जुन को श्रद्धावान बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। श्रद्धा हमारी पसंद के कर्म फल प्राप्त करने का अनुष्ठान नहीं है, बल्कि जो कुछ भी हमारे रास्ते में आता है उन्हें कृतज्ञता के साथ स्वीकार करने की आंतरिक शक्ति है। श्रद्धा यह है कि हमारे पास अस्तित्व की इच्छा से अलग और कोई इच्छा नहीं हो सकती।

इंद्रियों को वश में करना गीता का अभिन्न अंग है। श्री कृष्ण अन्यत्र इंद्रियों की तुलना जंगली घोड़ों से करते हैं और हमें उन्हें एक प्रशिक्षक की तरह नियंत्रित करने के लिए कहते हैं जो उन्हें समझकर घोड़ों की सवारी करता है। निश्चय ही यह जागरूकता है, परन्तु दमन नहीं।

 

Niyati Bhandari

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