Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं, संतुष्टि ही अमृत है

punjabkesari.in Thursday, Sep 28, 2023 - 07:56 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण ने दो स्थानों (गीता के श्लोक 3.9 से 3.15 और 4.23 से 4.32) पर यज्ञ रूपी नि:स्वार्थ कर्म की बात की। वह सावधान करते हैं कि प्रेरित कार्य हमें कर्म-बंधन में बांधते हैं। वह यह भी बताते हैं कि यज्ञ के नि:स्वार्थ कर्म में सर्वोच्च शक्ति निहित है और शुरुआत में इस शक्ति का उपयोग करके ही सृष्टि की रचना हुई। उन्होंने यज्ञ के कई उदाहरण देते हुए निष्कर्ष निकाला कि वे सभी कर्मों के अलग-अलग रूप हैं और यह अनुभूति हमें मुक्त कर देगी। इसे प्रभु का आश्वासन समझकर शिरोधार्य करना चाहिए।

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इसके अलावा, पाप के बारे में, श्री कृष्ण ने संकेत दिया (2.38 और 4.21) कि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय के द्वंद्वों के बीच असंतुलन से उत्पन्न होने वाली क्रिया ही पाप है, जिसके परिणामस्वरूप कर्म-बंधन, दोष, खेद, द्वेष और घृणा पैदा होती है।
उन्होंने आगे कहा, ‘‘जिसका अंत:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को प्राप्त नहीं होता।’’

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यज्ञ जानने वालों ने अनासक्ति के साथ कर्म करते हुए पापों को नष्ट कर दिया है। यह यज्ञ में पापों के विनाश के बारे में भगवान का आश्वासन है।

श्री कृष्ण ने पहले घोषित किया कि कर्म पर हमारा अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर नहीं। यहां उन्होंने एक रहस्य का खुलासा किया कि यज्ञ के नि:स्वार्थ कर्म का अवशेष ब्रह्म का अमृत है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हम जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह हमारे द्वारा सचेत या अनजाने में किए गए नि:स्वार्थ कार्यों का परिणाम है।

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एक और निष्कर्ष यह है कि अगर हम संतोष को मानदंड के रूप में लेते हैं, तो संतुष्ट व्यक्ति और संतुष्ट हो जाता है तथा दुखी व्यक्ति और दुखी हो जाता है यानी संतोष और अधिक संतोष लाता है तथा दुख और अधिक दुख। यह यज्ञ से मिलने वाले संतोष के अमृत के बारे में भगवान की ओर से एक आश्वासन है। प्रेरणा ही किसी कर्म को पाप बनाती है और वही कर्म जब यज्ञ की तरह किया जाता है तो वह पुण्य बन जाता है जो मुक्ति और संतोष के अमृत के अलावा और कुछ नहीं। 
 

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Content Writer

Niyati Bhandari

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