Srimad Bhagavad Gita  श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप- ‘परमसत्य रूप’ हैं भगवान

Wednesday, Nov 09, 2022 - 11:41 AM (IST)

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साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता- स्वामी प्रभुपाद

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : भगवान ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है। वह सामान्य पुरुष की भांति प्रकट हो सकते हैं, परंतु सामान्य मनुष्य को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती।

फिर भी लोग प्राय: अपने को ईश्वर या कृष्ण  घोषित करते रहते हैं। मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए। तब भगवान अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं।

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प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है। भगवान कहते हैं कि वह अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं। वह सामान्य जीव की भांति शरीर परिवर्तन नहीं करते। इस जन्म में जीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है।

भौतिक जगत में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है अपितु वह एक शरीर से दूसरे में देहांतरण करता रहता है किन्तु भगवान ऐसा नहीं करते। जब भी वह प्रकट होते हैं तो अपनी शक्ति से अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं। दूसरे शब्दों में श्री कृष्ण इस जगत में अपने आदि शाश्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बांसुरी धारण किए अवतरित होते हैं।

वह इस भौतिक जगत से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं। यद्यपि वह अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्मांड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वह सामान्य जीव की भांति प्रकट हो रहे हैं।

भगवान समस्त जीवों के स्वामी हैं क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वह आश्चर्यजनक तथा अतिमानवीय लीलाएं करते रहते हैं। अत: भगवान निरंतर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अंतर नहीं होता।

 क्रमश

Niyati Bhandari

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