Srimad Bhagavad Gita: कर्म योग हमें कर्म बंधन से मुक्त करता है

Monday, Aug 08, 2022 - 08:24 AM (IST)

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एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। बुध्द्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। 2.39।।
 
श्री कृष्ण कहते हैं कि सांख्य के बारे में स्पष्ट करने के बाद वह अब योग (या कर्म योग) की व्याख्या करेंगे, जिसके अभ्यास से व्यक्ति कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा।

सांख्य योग की व्याख्या करते हुए कृष्ण अर्जुन को अवगत कराते हैं कि वह अविनाशी चैतन्य है जिसकी मृत्यु नहीं है। इसी श्लोक से कृष्ण कर्मयोग द्वारा इसकी व्याख्या करने लगते हैं इसलिए कर्म बंधन और योग को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है।



योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन और गीता में इसका प्रयोग कई संदर्भों में किया जाता है। कृष्ण समत्व को ही योग कहते हैं जहां सफलता या असफलता के प्रति आसक्ति को छोड़ दिया जाता है। कृष्ण का जोर सुख-दुख, जीत और हार, लाभ और हानि के प्रति समत्व बनाए रखने पर है।

कर्म बंधन उन चिन्हों या निशानों को संदर्भित करता है, जो सुखद और दुखद दोनों तरह के होते हैं, जो हमारे किए कर्मों और हमें भीतर तथा बाहर से प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं द्वारा छोड़े जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से इन्हें तंत्रिका प्रतिरूप (न्यूरल पैटर्न) कहा जाता है। ये चिन्ह (छाप) हमारे व्यवहार को अचेतन स्तर से संचालित करते हैं और इसलिए कृष्ण हमें योग के माध्यम से कर्म बंधन की छाप से मुक्त होने के लिए कहते हैं।


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हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति उन चिन्हों (छापो) को पसन्द करती है जो हमें आनंद और लाभ देती हैं और उन ‘छापों’ से घृणा करती हैं जो हमें दर्द और हानि देती हैं। ये भाव जितने गहरे होते हैं, पसन्द करने और घृणा करने की तीव्रता उतनी ही अधिक होती है।

उदाहरण के तौर पर इन ‘छापों’ की तुलना पत्थर, रेत और पानी पर लिखावट से कर सकते हैं। जब छाप पत्थर पर होती है, तो यह गहरी होती है और हमें लंबे समय तक प्रभावित करती है। रेत पर लिखने से थोड़ा कम समय तक परन्तु पानी पर लिखा तुरंत मिट जाता है।

श्री कृष्ण पानी पर छाप का जिक्र कर रहे हैं, जब वह कहते हैं कि कर्म योग हमें कर्म बंधन से मुक्त करता है और यह हमें इतना सरल बनाता है कि कुछ भी हमें प्रभावित या परेशान नहीं कर सकता।

Niyati Bhandari

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