Srimad Bhagavad Gita: ‘श्रीमद्भगवद् गीता के अध्यायों का नामकरण रहस्य तथा सार’ - 5

Saturday, Sep 04, 2021 - 09:25 AM (IST)

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पांचवां अध्याय : ‘कर्म सन्यास योग’

Srimad Bhagavad Gita: भगवान द्वारा की गई ज्ञान योग की प्रशंसा को अर्जुन समझ नहीं सके। वह ज्ञान योग और कर्मयोग को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। उन्होंने भगवान से फिर यह प्रश्न किया, ‘‘ प्रभु आप कर्मों के संन्यास अर्थात ज्ञान योग में स्थिति तथा फिर निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। अत: इनमें से कोई एक निश्चित किया हुआ कल्याणकारी मार्ग आप मुझे बताएं।’’

भगवान बोले, ‘‘ये दोनों ही मार्ग परम कल्याण करने वाले हैं परंतु निष्काम कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है। तत्व को जानने वाला सांख्य योगी अर्थात ज्ञान योग में स्थित योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, श्वास लेता हुआ, सोता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आंखों को खोलता हुआ तथा बंद करता हुआ, यह मानता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं परंतु हे अर्जुन! इस स्थिति को देह में स्थित देहाभिमानी पुरुष द्वारा प्राप्त करना कठिन है।’’

‘‘परंतु दूसरी ओर निष्काम कर्म योग में लगा हुआ पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके निरासक्त हुआ कर्म करता है तथा कर्म फल को ईश्वर को अर्पण करके पाप से लिपायमान नहीं होता और मुक्ति का अधिकारी होता है परंतु दूसरी ओर सकामी पुरुष फलासक्त हुआ कामना के द्वारा बंध कर, जन्म-मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।’’

‘‘इसलिए निष्काम कर्म योग उत्तम है परंतु अर्जुन, इसमें कोई संशय नहीं कि ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्म योगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है परंतु निष्काम कर्म योग साधना में आसान होने के कारण श्रेष्ठ है।’’

‘‘यहां यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान योग में ज्ञानी भक्त कर्तापन के भाव से रहित होकर कर्तव्य कर्म करते हैं तथा कर्म योग में ज्ञानी भक्त भगवद् अर्पण बुद्धि से युक्त होकर कत्र्तव्य कर्म करते हैं तथा दोनों ही परिस्थितियों में कर्त्तव्य कर्म त्याज्य नहीं है परंतु हे अर्जुन! दोनों ही अवस्थाओं में मेरा भक्त मुझे सभी यज्ञों और तपों को भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर, सम्पूर्ण भूत प्राणियों का स्वार्थ रहित प्रेमी, ऐसा तत्व से जान कर शांति को प्राप्त होता है।

इसकी दृष्टि में उन सच्चिदानंद घन परब्रह्म परमात्मा भगवान वासुदेव श्री हरि जी के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता।’’

भगवान कहते हैं,‘‘हे अर्जुन! वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझो जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है।’’

इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म सन्यास के विषय में बतलाते हुए कहा कि कर्म फल का त्याग ही वास्तव में कर्म संन्यास है इसलिए इस अध्याय का नामकरण कर्म सन्यास योग है।  

Niyati Bhandari

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