Mahabharat: आइए, गीता का शंखनाद सुनें...

Wednesday, Aug 18, 2021 - 11:15 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: भारतीय संस्कृति में ‘शंख’ का अत्यधिक महत्व है। पौराणिक मंदिरों में तो शंखध्वनि प्रतिदिन गुञ्जायमान होती है। विभिन्न पुण्य अवसरों पर भी शंखनाद किया जाता है। विवाह आदि शुभ कार्यों में संकल्प के समय भी शंख प्रयुक्त होता है। परंतु यह तो पूजा-पाठ, आरती सदृश शुभावसर हेतु है। प्राचीन काल में युद्ध की स्थिति में भी शंखनाद किया जाता था। इससे वीर योद्धाओं में अपूर्व और अनुपम उत्साह भर जाता था। जब पक्ष और विपक्ष की ओर से शंखनाद होता था तो युद्धक्षेत्र में किसी को और कुछ नहीं सुनाई देता था। शंखध्वनि करने का मुख्य उद्देश्य था वीरों के मन को बाह्य वृत्तियों से मोड़ कर युद्ध हेतु आकृष्ट करना और वातावरण को युद्धमय बना देना। सैनिक घर-परिवार संबंधी कार्य, उत्तरदायित्व, पत्नी-बच्चों के प्रति आसक्ति, चिंता आदि को भूल कर युद्धोन्मुख हो जाते थे। फिर उन्हें और कुछ नहीं सूझता था और न ही घर का ध्यान रहता था। शंख के अतिरिक्त अन्य वाद्ययंत्रों का भी प्रयोग होता था, जो वीरों में नई उमंग, नया जोश भरने में सहायक होते थे, परंतु प्रमुखता शंख की ही थी।


आइए, गीता का शंखनाद सुनें :
कौरव और पांडव दोनों पक्षों के योद्धा कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने उपस्थित हैं, युद्धार्थ व्यूह-रचना भी कर ली है, युद्ध विशारद हैं, शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ एवं सशक्त हैं, युद्धारंभ होने की प्रतीक्षा है, बस आदेश मिलने की देर है। इसी ऊहापोह में कौरव पक्ष की ओर से भीष्म पितामह ने सिंह गर्जना के साथ अपना शंख बजा दिया :
तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह:। 
सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं दध्यौ प्रतापवान॥ 1/2


कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के समान गर्ज कर शंख बजाया। बस फिर क्या था। रणभेरी बजने की देर थी :
तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यंत  स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥ 1/13


तत्पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नृसिंह आदि बाजे एक साथ बजे।
जब इस प्रकार कौरव पक्ष की ओर से युद्धनाद हुआ तो पांडव पक्ष भी पीछे न रहा और उसने भी शंखनाद करके युद्धार्थ सनद्ध होने का संकेत दिया :
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पांडवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतु:॥ 1/14


तत्पश्चात सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रंदध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:॥ 1/15


श्री कृष्ण महाराज ने ‘पाञ्चजन्य’ नामक शंख, अर्जुन ने ‘देवदत्त’ नामक शंख बजाया। भयानक कर्मा वाले भीमसेन ने ‘पौण्ड्र’ नामक शंख बजाया। इससे यह भी विदित होता है कि इन महारथियों के शंखों के नाम भी गुणवत्ता के आधार पर अलग-अलग होते थे। और भी देखिए :
अनंतविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणि पुष्पकौ॥ 1/16


कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने ‘अनंत विजय’ नामक और नकुल तथा सहदेव ने ‘सुघोष’ और ‘मणि पुष्कर’ नाम वाले शंख बजाए।
काश्यश्च परमेष्वास: शिखंडी च महारथ:।
धृष्टद्युम्रो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥ 1/17


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शंखान् दुध्मु: पृथक्-पृथक्॥ 1/18


श्रेष्ठ धनुष वाला काशिराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजाओं वाला सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन सबने हे राजन! अलग-अलग शंख बजाए।
स घोषो र्धाराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवी चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥ 1/19


और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए। यहां पर कुछ महान योद्धाओं के ही शंखों के नामों का उल्लेख किया गया है जिससे यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि सभी महारथियों ने अपने-अपने शंखों के नामकरण किए हुए थे। जब सभी मिलकर बजाते थे तो उनसे बहुत ही भयंकर, उत्तेजक, जोशीली ध्वनि निकलती थी, जो उनकी महाशक्ति की प्रतीक थी।

Niyati Bhandari

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