Srimad Bhagavad Gita: ...तो दुनिया की कोई ताकत आपको हरा नहीं सकती

Friday, Jan 22, 2021 - 09:52 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: जब कभी भी हमारे जीवन में कुछ अवांछित घटित होता है तो हमारी मनोस्थिति में सर्व प्रथम यह भाव आता है कि यह जो कुछ कर्म है वह सब दुख रूप ही है। ऐसा समझ कर हम शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य  कर्मों का परित्याग करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। भगवद् गीता में ऐसे त्याग को राजसी त्याग कहा गया है तथा इस प्रकार का त्याग करके भी मनुष्य त्याग के फल को नहीं पाता अर्थात इस प्रकार का त्याग निरर्थक है जिसका कोई फल ही नहीं है। अज्ञानता के अभाव में हम इस प्रकार का कई बार मिथ्या आचरण करते हैं। विरले मनुष्य ही चिंता, भय तथा क्लेश से मुक्त होकर अपने कर्तव्य मार्ग पर अग्रसर रहते हैं।


हमारे धर्म ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की सिद्धि के लिए यज्ञ, दान तथा तप आदि कर्मों का विधान दिया गया है। भगवद् गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई यह समझे कि इन कर्मों के परित्याग को ही त्याग कहते हैं तो वह सर्वथा अनुचित है।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ईश्वर भक्ति, माता-पिता गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान तथा तप आदि सद्कर्म अगर आसक्ति तथा फल की इच्छा के बिना किए जाएं तो उसे ही वास्तविक एवं सात्विक त्याग कहते हैं। अगर हर कोई अपने कर्तव्य कर्मों को छोड़ कर फल की चिंता से ही ग्रस्त रहेगा, ऐसे में तो समाज की व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी।

अगर सबकी आसक्ति फल के प्रति अधिक होगी तो कर्तव्य का भाव पीछे छूट जाएगा। भगवद् गीता का यह सिद्धांत हर देश, काल तथा परिस्थिति में लागू होता है। क्षेत्र चाहे राजनीति का हो, सामाजिक हो अथवा आर्थिक, सत्ता छिन जाने का भय विवेक को हर लेता है। सत्ता रूपी फल को प्राप्त करने के लिए अथवा उसकी स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अगर कोई शासक वर्ग अनैतिक ढंग से अपने प्रायोजन में सफल हो भी जाता है तो वह सफलता क्षणिक ही होगी और यश भी प्राप्त नहीं होता। इतिहास साक्षी है कि जो फल की चिंता किए बगैर अपने कर्तव्य मार्ग पर अडिग रहे उन्हें यश के साथ शाश्वत सिद्धि भी प्राप्त हुई लेकिन जिन्होंने कर्तव्य  कर्म की बजाय फल को अधिक महत्व दिया उन्हें इतिहास में कोई भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं हुआ अथवा वे समय के अंधकार में खो गए।


भगवान श्री कृष्ण भगवद् गीता में अर्जुन के प्रति कहते हैं कि
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:।।
भावार्थ :
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्र श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धि योग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन हैं।

भगवद् गीता का बुद्धियोग अर्थात समत्व योग, आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर समत्व योग में स्थित हुए कर्तव्य कर्मों को करना है। भाव, जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने अथवा न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ही ‘समत्व’ योग कहलाता है।


हर कर्म में उसका फल समाहित ही होता है। जब आप कर्तव्य भाव से कर्म करते हैं तो आपका उसके फल पर अधिकार स्वत: ही सिद्ध हो जाता है परंतु फल का स्वरूप आपकी इच्छा के अनुसार हो यह अनिवार्य नहीं है। जब समाज में एक ही फल को लेकर मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छाओं का टकराव पैदा होता है। तब समाज में अव्यवस्था पैदा होती है जो मानव समाज की प्रगति और उन्नति के लिए बाधक है।

परिस्थितियों का आकलन करने के लिए मन और बुद्धि का व्यवस्थित होना परमावश्यक है और इसके लिए बुद्धि का ज्ञान युक्त होना भी सबसे अधिक आवश्यक है। बहुत से मनुष्य ज्ञानवर्धन के लिए तो प्रयासरत रहते हैं परंतु ज्ञान से उनमें मनोपरिवर्तन भी होता है अथवा नहीं, यह जानना भी आवश्यक है।

लोक कल्याण की भावना से किए गए हर कर्म से समाज में समानता, सद्भावना तथा सामाजिक समरसता का प्रादुर्भाव होता है। वेदों, उपनिषदों तथा शास्त्रों के ज्ञान की उपयोगिता सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक है। भगवद् गीता का कथन है कि नि:स्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए कर्तव्य भाव से कर्म करते हुए परम कल्याण की प्राप्ति अवश्य होती है।

Niyati Bhandari

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