श्री श्री रविशंकर के प्रवचन: ‘सत्संग’ के दो रूप
Friday, Jun 10, 2022 - 09:54 AM (IST)
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Sri Sri Ravi Shankar: हमारे मस्तिष्क के दो भाग हैं- दायां और बायां भाग। एक भाग तर्क प्रधान है तो दूसरा भाव प्रधान। सत्संग के दो रूप हैं। एक जिसमें ज्ञान चर्चा करते हैं और तर्क को मान्यता देते हैं और दूसरा बिना किसी विचार में उलझे, बिना अर्थ पर ध्यान दिए, पूरे हृदय से मग्न होकर नाचना-गाना और भजन में सम्मिलित हो जाया करते हैं।
भजन में हम एक ही शब्द या कुछ शब्दों को बार-बार दोहराते हैं। जानते हैं भजन का अर्थ क्या है? भजन का अर्थ है बांटना, नाद में सम्मिलित होना, क्योंकि भजन और कीर्तन में नाद (आवाज) का महत्व अधिक है।
नाद हमारे अंतस की गहराई से निकलता है। वह हमारे अंतरतम के शून्य आकाश का गुण है। भजन में हम इस शून्य को दूसरों के साथ नाद (आवाज) के द्वारा बांटते हैं इसलिए गाते समय कोई ठीक तरह से गा सकता है या नहीं, इस पर ध्यान न देकर केवल उसमें सम्मिलित हो जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि संगीत हमारा आंतरिक गुण है।
मनुष्य में सभी प्रकार के जीव जंतुओं का सम्मिश्रण है (इसीलिए मनुष्य कभी शेर की तरह गरजता है और कभी गुर्राता है)। यदि हम मिल कर भजन-कीर्तन में डूबते हैं तो हम पक्षियों की भांति हल्के-फुल्के हो जाते हैं और हमारी चेतना ऊपर की ओर बढ़ने लगती है और इस तरह हमारे जीवन में सत्व का और अधिक समावेश होता है।
अब इन तीन गुणों की चर्चा भोजन के संदर्भ में करते हैं। ठीक मात्रा में आवश्यकतानुसार भोजन करना, भोजन जो सुपाच्य हो, ताजा हो और कम मिर्च मसाले वाला हो, ऐसा भोजन सात्विक भोजन है और सात्विक प्रवृत्ति वाले लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं। राजसिक प्रवृत्ति के लोग अधिक तीखा, मिर्च मसाले वाला, तेज,नमकीन या अधिक मीठा भोजन पसंद करते हैं।
बासी, पुराना, पका हुआ और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भोजन तामसिक प्रवृत्ति के लोग पसंद करते हैं। आयुर्वेद के अनुसार 6-7 घंटे पहले पका हुआ भोजन तामसिक होता है। इस प्रकार भोजन के भी तीन प्रकार के गुण हैं। ऐसे ही तीन प्रकार की बुद्धि भी है। उसे हम धृति कहते हैं।
सात्विक बुद्धि प्रसन्नता और फलाकांक्षा के बिना कार्य करती है। सात्विक बुद्धि वाले कार्य के सम्पन्न होने या न होने से उत्साहित या हतोत्साहित नहीं होते। उनकी खुशी कार्य के फल पर निर्भर नहीं करती।
राजसिक बुद्धि वाले हर कार्य में फल की आकांक्षा रखते हैं और सफलता न मिलने पर बहुत उदास तथा सफलता मिलने पर बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। हर स्थिति में उनकी उत्तेजना बनी रहती है और छोटी-छोटी बातों से बहुत विचलित हो जाते हैं। उन पर बहुत अधिक सोच-विचार करते हैं।
तामसिक बुद्धि वाले आलसी और निरुत्साही वृत्ति के होते हैं जो हर काम के प्रति अरुचि और टालमटोल करते हैं। वे छोटा-सा काम करने में भी बहुत समय लगाते हैं। काम के समय तथा बाद में भी बड़बड़ाते रहते हैं, नाखुश रहते हैं।
जीवन में साधना से बुद्धि में सात्विक गुण बढ़ता है और सात्विक बुद्धि से ज्ञान, सजगता और प्रफुल्लता का उदय होता है। यह सब सत्व के साथ ही आता है। हमारे व्यक्तित्व में जीवन में जो उन्नति होती है, वह सत्वगुण बढ़ने पर ही आती है। रजस के साथ जीवन में दुख एवं उदासी तथा तमस के साथ भ्रांति और आलस्य बढ़ता है।
इसलिए हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह वर्ष में एक या दो सप्ताह साधना (प्राणायाम, क्रिया, ध्यान आदि) के लिए निकाले और दिव्य ज्ञान को अपने जीवन में उतारे।
आप में से कुछ ने महसूस किया होगा कि जब कभी आप इस तरह के किसी मौन शिविर या साधना शिविर में जाने के लिए तैयार होते हैं तो आपके भीतर कुछ न कुछ बदलाव आना शुरू हो जाता है।