श्री शत्रुंजय जैन तीर्थ: असंख्य मंदिरों के दिव्य दर्शन एक साथ होते हैं प्राप्त

Tuesday, Feb 07, 2017 - 09:21 AM (IST)

तीर्थाधिराज:श्री आदिश्वर भगवान शांत व सुंदर श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (7 फुट 1 इंच) लगभग 2.16 मीटर (श्वे. मंदिर)। यह तीर्थ स्थल शत्रु जी नदी के किनारे पालीताना गांव से करीब 6 किलोमीटर दूर पर्वत पर स्थित है। पर्वत की चढ़ाई लगभग 4 किलोमीटर है। जैन शास्त्रानुसार यह तीर्थ, शाश्वत तीर्थ माना जाता है। पुराने जमाने में इसे पुंडरीक गिरि कहते थे। शास्त्रोंं में इस महान तीर्थ के 108 नाम दिए गए हैं। इस तीर्थ के अनेकों उद्धार हुए। इनके अतिरिक्त राजा सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य आम राजा, खंभात निवासी श्री तेजपाल सोनी तथा श्वेताम्बर जैन संघ द्वारा स्थापित आनंद जी कल्याण जी पेढ़ी आदि ने आवश्यक जीर्णोद्धार कराए। जैन शास्त्रानुसार यहां अनेक आत्माओं ने सिद्धपद प्राप्त किया जैसे चैत्र पूर्णिमा को श्री आदिश्वर भगवान के प्रथम गणधर श्री पुंडरीक स्वामी कार्तिक पूर्णिमा को द्राविड़ वारिखिल अनेक मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे। फाल्गुन शुल्क त्रयोदशी के दिन भारी तीर्थंकर श्री कृष्ण वासुदेव के पुत्र शाम्ब व प्रद्युम्र शत्रुंजय गिरिराज की सदभद्र नाम के चोटी पर से, जो पीछे से ‘भाड़वा के डुगर’ के नाम से प्रसिद्ध हुई, अनेक मुनिवरों के साथ मोक्ष सिधारे, उस प्रसंग की स्मृति में छ: कोस (19.3 कि.मी.) की फेरी दी जाती है व बड़ा मेला लगता है।

 

इनके अलावा सूर्ययशा, नमि, विनमि, नारदजी, श्री आदिनाथ भगवान के वंशज श्री आदित्य यशा राजा से लेकर श्री सगर चक्रवर्ती तक, श्री शेलकसूरि, श्री शुक परिव्राजक, पांच पांडव इत्यादि अनेकों मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुआ। श्री आदिश्वर भगवान का यहां अनेकों बार पदार्पण हुआ था भगवान श्री नेमिनाथ के अतिरिक्त अन्य 23 तीर्थंकरों ने यहां पदार्पण करके इस महान पुण्य तीर्थस्थल की पुन: प्रतिष्ठा की। भगवान आदिश्वर पूर्वनवाणु बार सिद्धांचल गिरिराज पर पधारे थे। इस पुण्य अवसर की पावन स्मृति में नवाणु यात्रा व चातुर्मास करने भारत के कोने-कोने से यात्रीगण यहां आते हैं। साधु सम्प्रदाय यहां हर समय सैंकड़ों की संख्या में विराजते हैं। कार्तिक पूर्णिमा, चैत्र पूर्णिमा, फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी व अक्षय तृतीया को यात्रा करने व पूजा का लाभ लेने हजारों यात्रीगण आकर अपना-अपना मनोरथ पूर्ण कर, पुण्योपार्जन करते हैं। अक्षय तृतीया को वर्षीतप का पारणा करने हजारों तपस्यार्थी जगह-जगह से आते हैं। इसलिए यात्रीगणों की खूब भरमार होने के कारण उस दिन यहां का दृश्य अतीव मनभावन प्रतीत होता है। प्राय: यात्री संघों का आना-जाना भी बना रहता है जिससे यहां नित्य मेला-सा लगा रहता है। 

 

पालीताना गांव से लेकर तलहटी तक अनेकों मंदिर हैं, प्राय: हर मंदिर में धर्मशाला है। पहाड़ पर चढ़ते वक्त तलहटी पर पादुकाओं के सम्मुख गिरिराज का चैत्य वंदन करके यात्रीगण अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। प्रथम अजीमगंज निवासी धनपत सिंह जी लक्ष्मीपत सिंह जी के द्वारा विक्रम संवत 1950 के माघ शुक्ला 10 को प्रतिष्ठित एक भव्य बावन जिनालय मंदिर आता है जिसे धनवसही टूंक कहते हैं। आगे बढऩे पर प्राय: हर विश्रामगृह के सामने कुछ देरियां हैं जिनमें भरत चक्रवर्ती, नेमिनाथ भगवान के गणधर वरदत्त, आदिश्वर भगवान व पाश्र्वनाथ भगवान की चरण पादुकाएं एवं द्राविड़ वारिखिल, नारदजी राम, भरत यावच्चापुत्र, शुकपरिव्राजक, शेलकसूरी, जाली, मयाली, उवयाली व देवी इत्यादियों की मूर्तियां हैं। बीच में कुमारपाल कुंड, शाला कुंड आदि आते हैं। शाला कुंड के पास जिनेंद्र टूंक हैं जिसमें गुरुपादुकाएं एवं मूर्तियां हैं। लगभग 16 इंच की प्रभावशाली एवं सुंदर पदमावती देवी की मूर्ति है। सामने एक रास्ता नौ टूंकों की ओर जाता है एवं दूसरा रास्ता मुख्य टूंक श्री आदिश्वर भगवान की ओर। 

 

इस भव्य टूंक की ओर जाने पर पहले रामपोल फिर वाघणपोल आते हैं आगे हाथीपोल में प्रवेश करते समय सूरज कुंड, भीम कुंड एवं ईश्वर कुंड मिलते हैं। पहाड़ पर पहुंचते ही लगता है जैसे हम किसी देवलोक में आ पहुंचे हैं। संपूर्ण पहाड़ पर सैंकड़ों मंदिरों का दृश्य देखते-देखते मनुष्य सारी सांसारिक चिंताएं एवं कर्म-कलाप भूलकर अपार भक्ति भाव में लीन हो जाता है। जगत की पुण्यस्थली भारतवर्ष में एक ही पर्वत पर इतने सारे मंदिरों का एकात्मक दिव्य दृश्य अपने आप में अनूठा, अनुपम है। इस पहाड़ के एक ओर शत्रु जी नदी बहती है जिसकी ठंडी-ठंडी मलयानित रूपी पवन यानी हवा का स्पर्श बराबर यात्रियों को भाव-विभोर किए रहता है, दूसरी ओर गांव के उनके मंदिर एक पुण्य आभा बिखेरते नजर आते हैं।
 

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