कृष्णावतार

Sunday, Nov 13, 2016 - 12:20 PM (IST)

अभी उन्होंने शंख फूंका ही था कि देवर्षि नारद जी ‘नारायण-नारायण’ कहते हुए आते दिखाई दिए। उन्हें आते देख कर युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव हाथ जोड़ कर खड़े हो गए।

 

अर्जुन को देवर्षि नारद ने हाथ से इशारा करके रोका और बोले, ‘‘धनंजय, तुमने अजातशत्रु बनने के लिए ये दिव्य अस्त्र प्राप्त किए हैं। यहां कौन आ गया है तुम्हारा शत्रु बन कर जिसे लक्ष्य बना कर तुम अस्त्रों का प्रयोग करने की बात सोच रहे थे? जब तक कोई लक्ष्य सामने न हो तब तक दिव्य अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अगर कोई शत्रु सामने भी खड़ा हो, तब भी, जब तक वह घातक प्रहार न करे तब तक तुम्हें उस पर दिव्य अस्त्रों का प्रहार नहीं करना चाहिए। इन अस्त्रों का अकारण प्रयोग करने से भारी अनर्थ हो जाता है। यदि तुम नियमानुसार इनका प्रयोग करोगे तो ये शक्तिशाली और तुम्हें सुख देने वाले सिद्ध होंगे और यदि तुमने नियमों का पालन न करके इनका प्रयोग किया तो ये त्रिलोकी का ही नाश कर डालेंगे। ये तमाशा देखने-दिखाने की वस्तु नहीं हैं।’’ 

 

धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव तथा द्रौपदी ने शीश झुकाकर और हाथ जोड़ कर देवर्षि नारद के उपदेश का पालन करने का वचन दिया जिसके बाद देवर्षि नारद ‘नारायण-नारायण’ का उच्चारण करते हुए वहां से विदा हुए। 

 

इसके बाद धनाधीश कुबेर ने पांडवों को वहां रहने के लिए एक सुंदर भवन की व्यवस्था कर दी और पांचों भाई द्रौपदी तथा ब्राह्मणों के साथ वहां चार वर्ष सुखपूर्वक रहे। ब्राह्मण लोग उन्हें प्राचीन काल की ऐतिहासिक एवं धार्मिक कथाएं सुनाया करते थे और दिन भर सब भाई वनों और वाटिकाओं और पर्वतों पर भ्रमण करते रहते थे।
 

एक दिन भीम घूमते-फिरते एक पहाड़ी गुफा के प्रवेश द्वार के आगे से गुजरे तो एक भयंकर अजगर ने उन्हें अपनी लपेट में लेकर कस लिया। भीम सेन ने पूरा जोर लगाया परंतु अजगर के सामने उनकी एक न चली। कुछ ही देर में भीमसेन अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर भी अजगर उन्हें लपेट कर कुंडली मारे बैठा रहा।     
(क्रमश:) 

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