वैसाखी पर विशेष: खालसे का स्वरूप तथा आदर्श का करें दर्शन

Saturday, Apr 13, 2019 - 05:51 PM (IST)

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दशम पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1756 बिक्रमी की वैसाखी को श्री आनंदपुर साहिब की पावन धरती पर जिस विचित्र ढंग से खालसे की सृजना करके, उसको स्वरूप तथा आदर्श का पुजारी व अधिकारी बनाया है, वह अपने आप में कौम सजाने के इतिहास में नवीन, मौलिक तथा प्रभावशाली घटना है।

कौमें चाहे भारत में अस्तित्व में आईं चाहे भारत से बाहर, किसी कौम या उस कौम के प्रतिनिधियों का स्वरूप केशधारी तथा शस्त्रधारी नहीं है। केशधारी तथा शस्त्रधारी स्वरूप केवल खालसा कौम को ही प्राप्त हुआ है। इस स्वरूप का सदका पुरातन धार्मिक परम्परा के विश्वासों एवं विचारों में जीते हुए भी हम नवीन व स्वतंत्र अस्तित्व के मालिक हैं। यह स्वतंत्र अस्तित्व एवं स्वरूप  हमारे न्यारे एवं तेजधारी होने का प्रतीक भी है। सरबत खालसा के लिए स्वतंत्र अस्तित्व एवं स्वरूप को स्थिर रखना तथा उस पर पहरा देना अति आवश्यक बन जाता है। यही कारण है कि खालसे के सृजनात्मक मंडल में किसी भी तरह के भय, गुलामी एवं चंचलता को स्वीकार नहीं किया गया। खालसे का ‘ककारी स्वरूप’ सचमुच ही प्रेम-भावना एवं स्वतंत्र विचारों से स्वाभिमान की जिंदगी को सृजित व मूर्तिमान करने में अहम योगदान देता है।

खालसे का स्वरूप खालसे के आदर्श को स्पष्ट तथा साक्षात करता है। गुरु-परंपरा में सृजित सभी गुरु शख्सियतें आदर्श की पुजारी तथा अधिकारी थीं। यही कारण है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसे को अपना स्वरूप प्रदान कर उसको आदर्श का पुजारी तथा अधिकारी बनाया।

खालसे के स्वरूप एवं आदर्श में व्यक्ति-पूजा की कोई जगह नहीं। इसी कारण श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का खालसा सीधा दैवी-मूल्यों तथा अकाल-रूप की प्राप्ति के लिए जूझता रहता है, किसी व्यक्ति-विभाजन, दल-विभाजन आदि को स्वीकार नहीं करता। जो भी व्यक्ति खालसा रूप धारण करके वर्ण-विभाजन तथा दलों का पुजारी बना बैठा है, वह सही अर्थों में खालसा नहीं और न ही वह गुरु-ज्ञान का पुजारी है।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने तो खालसे के स्वरूप की साजना करके अगर उसको श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में रहने का आदेश दिया है तो इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि खालसे ने सदैव शबद-गुरु-ज्ञान की हजूरी में जीना है। इस जीवन-क्रिया द्वारा ही वह अपने रूप, तेज तथा आदर्श पर गर्व कर सकता है।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का दृढ़ निश्चय है कि आदर्श की पुजारी एवं अधिकारी कौम ही शक्तिशाली होकर जी सकती है। जो कौमें शक्ति-प्राप्ति के प्रसंग में अपने सच्चे-सुच्चे तथा ज्ञानशील आदर्श को त्याग रही हैं वे अपनी शक्ति के प्रभाव को स्थिर नहीं रख सकतीं। भारत की कई मुख्य कौमें इसी भूल का शिकार हो जाने के कारण अपना चिरंजीव, शक्तिशाली तथा दैवी प्रभाव कायम न रख सकीं। खालसे पर इस समय अंदरूनी-बाहरी जो हमले हो रहे हैं, उनका मुख्य कारण भी यही है कि खालसा अपना आदर्श त्याग कर निज-शोभा तथा निज-शक्ति की लड़ाई का शिकार बनता जा रहा है।

यदि खालसा निज-शोभा तथा निज-शक्ति को त्याग कर जीए, तो निश्चय उसकी प्रत्येक मैदान में विजय होगी। जय-जयकार हमेशा आदर्श की होती है, व्यक्तियों की नहीं। इसी कारण श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसे को जिस स्वरूप में जीने का आदेश दिया है, वह सत्य स्वरूप में खालसे के आदर्श को प्रकट भी करता है और इस पर पूरे साहस से पहरा देने के लिए उत्तेजित भी करता है।

खालसे का आदर्श श्री गुरु ग्रंथ साहिब है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब दस गुरुओं की जागती एवं स्वाभिमान भरी ज्योति का प्रकाश-रूप है। खालसा शरीरों से सदा आजाद होकर जीता है। यही कारण है कि  खालसे का आदर्श बाणी है और बाणी में ही हमारे कौमी तथा पंथक स्वरूप की व्याख्या व विशेषता को प्रकट कर दिया गया है।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कौमी तथा पंथक स्वरूप का जो सर्वव्यापक पक्ष प्रकट हुआ है, वह है एकता, कौम की एकता, पंथ की एकता तथा आदर्श की एकता। एकता कभी भी शरीरों या व्यक्तियों की नहीं होती, एकता हमेशा जज्बे की होती है। कौमी जज्बे में जीने से ही सरबत खालसे में एकता का अहसास एवं गौरव जाग सकता है। जिस ‘कौम’ में पथ अलग-अलग बन जाएं, सोचने एवं विचारने के रास्ते अलग-अलग हो जाएं वह कौम भी शक्तिहीन हो जाया करती है। दस गुरुओं ने एक पंथ साजकर, एक ही धरती श्री आनंदपुर साहिब का निवासी ठहराकर, एक ही माता-पिता के सुपुत्र बनाकर, एक ही स्वरूप तथा आदर्श में सजाकर कौम को जो शक्ति एवं स्वरूप बख्शा है, वह पंथक स्वरूप में देखा जा सकता है। इसी कौमी तथा पंथक शक्ति को देखने के लिए गुरु-ज्योति ने खालसे को आदर्श की एकता में रहने तथा जीने के लिए तैयार किया।    

Niyati Bhandari

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