Smile please: मोह के विष को छोड़ प्रेम के अमृत का पान करें

Sunday, Mar 19, 2023 - 10:38 AM (IST)

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Smile please: प्रेम और मोह मनुष्य जीवन की दो ऐसी सहज भावनाएं हैं, जो हम सभी के भीतर मौजूद हैं। अक्सर लोग प्रेम और मोह को एक समान मानने की गलती कर बैठते हैं, जबकि उनमें जमीन-आसमान का अंतर है। प्रेम का आरंभ किसी व्यक्ति से हो तो सकता है पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। यदि कुछ पाने की कामना करता है तो वह मोह बन जाता है। मोह आदान-प्रदान की अपेक्षा और उपभोग की कामना करता है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और समस्त विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ और संसार से किसी न किसी प्रकार का स्वार्थ जुड़ा रहता है। जिसके प्रति मोह होता है उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है।



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इसमें व्यवधान होने पर खीझ, झुंझलाहट और असन्तोष उमड़ता है। प्रेम इस तरह की कोई कामना नहीं करता। प्रेमी के हित और उसके प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति में ही संतोष अनुभव करता है। चूंकि प्रेम एक आदर्श है, इसलिए उसकी घनिष्ठता एकात्मता, आदर्श के साथ ही जुड़ी रहेगी। अत: जहां आदर्श न हो वहां प्रेम का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। दूसरी ओर व्यक्तिगत मोह किसी के रंग-रूप, व्यवहार, उपयोग एवं आकर्षण के आधार पर पनपता है।

मसलन, जो रुचिर लगा उसी के प्रति आकर्षण बढ़ गया, जिसकी समीपता में सुखद कल्पना कर ली गई, उसी के पीछे मन चलने लगा। यह आसक्ति किसी को देखने मात्र से पनप सकती है व उसके घनिष्ठ सान्निध्य की आतुरता उन्माद बनकर कुछ भी कर-गुजर सकती है।

ऐसे प्रेमोन्माद में कभी भी किसी को शांतिदायक परिणाम हाथ नहीं लगा। वास्तव में मोह में गुणों की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती क्योंकि उसके लिए तो शारीरिक आकर्षण ही पर्याप्त है। मोहग्रसित व्यक्ति एक संबंध में कभी भी टिक नहीं पाता और अपने आकर्षण की प्यास बुझाने के लिए एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे... ऐसे अनगिनत संबंधों की बेड़ियों में खुद को जीवन भर बांधता रहता है। अंतत: वह न किसी का सगा और न ही विश्वासपात्र बन पाता है।



ये सारी पीड़ाएं दो व्यक्तियों के बीच के सच्चे या विशुद्ध प्रेम में कतई देखने को नहीं मिलतीं क्योंकि वे जानते हैं कि वास्तविक सौंदर्य शरीर का नहीं आत्मा का होता है। इसीलिए ऐसे व्यक्ति शारीरिक आकर्षण को महत्व नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि ऊपर से दिखने वाली चमड़ी के भीतर तो सर्वत्र रक्त, मांस, अस्थि जैसे घिनौने और दुर्गंध युक्त पदार्थ ही भरे पड़े हैं, अत: उनमें केवल मूढ़ मति ही उलझती है।

परमात्मा ने हमें इस धरती पर सुख, शांति और सद्भावना के साथ जीवन व्यतीत करने के लिए उत्पन्न किया है, किन्तु हमने अपने लोभ व स्वार्थवश चारों ओर ममता व मोह का ऐसा मायाजाल निर्मित कर दिया है, जिसमें हम स्वयं तो फंसे ही हैं, दूसरों को भी हमने इस दलदल में अपने साथ घसीट लिया है।



अब इससे बाहर कैसे निकला जाए ? इसकी तरकीब बिल्कुल सरल है और वह है ‘आत्मानुभूति’। जब तक हम स्वयं यह बात स्वीकार नहीं करेंगे कि मोह का यह मायाजाल हमारी ही अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है, तब तक हम इससे बाहर नहीं निकल पाएंगे।

अत: यदि हम अपना उद्धार चाहते हैं, तो हमें सभी प्रकार की इच्छा-कामनाओं का त्याग कर एक परमात्मा की तरह सभी आत्माओं से नि:स्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा।   

Niyati Bhandari

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