Smile please: इस विधि से अपने भीतर के ‘ईश्वर’ को पहचानें

Wednesday, Nov 16, 2022 - 01:50 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Smile please: जीवन एक स्वर्णिम वरदान है। मानव को स्वस्थ एवं सुखी रहने के लिए ही वह स्वर्णिम अवसर मिला है। जीवन से बढ़कर अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है। यदि आपका सारा धन लूट गया और जीवन शेष बचा है तो कुछ भी नहीं लुटा। जीवन का महत्व समझना चाहिए। जीवन में रुचि लेना आद्य एवं सर्वप्रथम आवश्यकता है। धर्म, कर्म, ज्ञान, योग, भोग, त्याग, मुक्ति इत्यादि सब कुछ बाद में है। जो जीवन में रुचि नहीं लेता, उसे जीने का अधिकार नहीं, वह तो जिंदगी के बोझ ढोने वाला दयनीय पशु है। हमारी पूरी शक्ति बाहर किसी को पाने या हटाने में लगी रहती है।

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हम बाहर आरूढ़ व भौतिक चीजों पर निर्भर हैं, जो एक दिन नष्ट हो जाएंगी। हमारा स्वयं को स्वीकारने की आवश्यकता को स्वीकारना, ईश्वर को स्वीकारना है। ‘‘अगर तुमने एक बात का निर्णय लिया है कि तुम सत्य के साथ खड़े हो तो तुम समझ लेना दुनिया की सबसे बड़ी ताकत तुम्हारे साथ है और तुम यहां अकेले नहीं हो। हमें पता नहीं तुम्हारे भीतर कितनी बड़ी शक्ति बैठी है, बस नजर वहां नहीं है। नजर बाहर है क्षुद्र पाने, हटाने के फेर में। भीतर ईश्वर है तो भीतर समस्याएं भी हैं।’’

एक सज्जन किसी व्यक्ति से बेहद घृणा करते हैं। उनका चित्त उनके भीतर उस व्यक्ति की छवि से तथा घृणा से चिपका हुआ है जो उन्हें बेहद अस्थिर, अशांत, असंतुलित बना रहा है। उन्हें चाहिए कि वह अपने भीतर उस व्यक्ति की छवि से तथा घृणा से दूरी निर्मित करें। व्यक्ति, वृत्ति से चिपकाव खत्म करें। वे दोनों उन्हीं के प्रक्षेपण हैं। वे अपने ही प्रक्षेपण से बंधकर आहत हैं। यही तो माया है, खुद से खुद को तकलीफ देने वाली। आदमी इस कारण से पिंजरे से छूटना चाहता है। वह जा कहां सकता है, अच्छा हो अगर वह उस पिंजरे को, उसमें रहने को स्वीकार कर ले। यह खुद को स्वीकार लेना ही है। ऐसा करने से वह अपने आप में आ जाता है या वह आत्मशक्ति के वश में हो जाता है। यह उसे असुरक्षाजनक लग सकता है। असुरक्षा का विचार अपने आप में न रह पाने का बड़ा कारण है, जबकि अपने आपको स्वीकार कर अपने आप में रहने में बड़ी शक्ति है। उसमें सूक्ष्म बुद्धि भी होती है तथा आत्मबल भी बेहद बढ़ जाता है। अहंकार बाहर जाता है। उसका स्वार्थ बाहरी से जुड़ा है।

ऐसा कहा है-‘‘जब तक आप दूसरे की तुलना में अपने को सोच रहे हैं, आपने अपने को सम्मान ही नहीं दिया, आप अपना अपमान कर रहे हैं। ‘मैं तुमसे कम नहीं, अधिक हूं।’ मैं अधिक श्रेष्ठ, विशेष-यह वृत्ति आत्मसम्मान की विरोधी है, अपने होने का अपमान करने वाली। यहां हर आदमी श्रेष्ठ है तुलनात्मक रूप में नहीं, अपने आप में। बिना तुलना किए हर आदमी श्रेष्ठ हो, यही तो आत्मसम्मान है। तुलना तो अपना अपमान है। गीता समता पर बहुत जोर देती है। क्या कारण है जो समत्वयोग में स्थापित है, उसे बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वह अहंकार रहित है तथा उसमें छोटे-बड़े, अमीर-गरीब आदि का भेद नहीं है।

हर आदमी उसके सानिध्य में अपने आपको सम्मानित अनुभव करता है। अहंकार ऐसा नहीं है। वह सम्मान का प्रदर्शन कर सकता है पर स्वयं को अलग ही रखता है। अलग रहने वाले अहंकार से किसे संतुष्टि हो सकती है, घुल-मिल कर रहने में अहंकार नहीं होता। व्यक्ति, समूह से मिलकर रहे यह हृदय में रहने से संभव है, मस्तिष्क में रहने से नहीं। मस्तिष्क में शक्ति की ऊर्जा की मांग होती है। किसी एक हितकारी चीज पर दृढ़ बने रहना, यह भटकते रहने की अहितकारी आदत से अलग है। इस कारण से यह सलाह दी जाती है-‘‘एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो-उसके बारे में सोचो, उसको देखो उस विचार को जीओ, अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों और शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचारों को किनारे  रख दो यही सफल होने का तरीका है।’’

‘‘यह योग है, यह साधना है। सुख सभी को चाहिए, इसमें कुछ भी बुरा नहीं। सुख के फायदे बहुत हैं लेकिन बात वही है कि सुखी होने के लिए, सुख से जीने के लिए कुछ करना पड़ता है। गीता का कथन है-‘‘समता में ही सुरक्षा का उपाय ढूंढ।’’ समता का मतलब है या तो सुख-दुख दोनों को महत्व देना बंद कर दिया जाए, या सुख-दुख दोनों को स्वीकार लिया जाए कि हां ठीक है यहां ऐसा भी होता है, वैसा भी होता है ? आदमी सोचता है- क्या दूसरा रास्ता नहीं ? शक्ति तो चाहिए। समता में अपार शक्ति है, वह अहंकार की क्षुद्र सोच में दिखाई नहीं पड़ती। समता के लिए राग-द्वेष रहित होना जरूरी है। राग-द्वेष रहित व्यक्ति पूरी तरह से अपने आपको स्वीकार सकता है।

जो जादू की बात कही, वह पूर्ण आत्मा स्वीकार से संभव है। राग-द्वेष के रहते अपने आपको स्वीकार करने की कोशिश सफल नहीं होगी, इसलिए वस्तुस्थिति को ठीक से समझ लेना जरूरी है। अपने जीवन को जैसा भी है, स्वीकार कर लेना चाहिए तथा अपनी परिस्थितियों को कोस कर अपने लिए नर्क बना लेना नासमझी है। जीवन का पुजारी अवश्य ही सुख को प्राप्त कर लेता है।

महा औषधि है जीने की इच्छा
जीवेष्णा (जीने की इच्छा) निराशा को दूर करने के लिए महौषधि होती है। जीवन के सौंदर्य एवं आकर्षण को न जानने वाले मूढजन जीवन से ऊब जाते हैं। अधिक से अधिक लोगों के लिए विशेषत: अधिक से अधिक दीन-दुखी जन के लिए, अधिक से अधिक उपयोगी बनने पर आपके जीवन में एक विचित्र माधुर्य उत्पन्न हो जाएगा और आपका जीवन एक मधुर संगीत बन जाएगा। जीवन की सरगम पर कोई बेसुरा राग न अलापें, एक मधुर संगीत गाएं। मानव भ्रांत विचारों तथा मूर्खतापूर्ण कर्मों के कारण इधर-उधर भटकता ही रहता है। अनेक बार मनुष्य धन, बल इत्यादि के अभाव पर तथा अपने दुर्गणों पर अनावश्यक ध्यान देने के लिए पतनकारक हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है, किंतु आत्मसम्मान को जगाकर वह उससे भी अवश्य मुक्त हो सकता है।

 

Niyati Bhandari

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