हरि पद प्रदान करती है श्रीमद्भगवद्गीता

Tuesday, Dec 22, 2020 - 02:01 PM (IST)

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जिस दिन अखिल ब्रह्मांड अधिपति भगवान श्री कृष्ण जी ने महाभारत में कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल पर श्रीमद्भगवद् गीता का अमर उपदेश दिया वह दिन श्री गीता जयंती के नाम से जगत प्रसिद्ध है। मार्गशीर्ष की शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी के दिन श्री गीता जी स्वयं आनंदकंद भगवान के मुखारविंद से प्रकट हुईं। जगत का कल्याण करने वाली, जीव जगत को आत्मा की अनश्वरता का बोध कराने वाली, सकल शास्त्र की स्वामिनी, कर्म बंधन से छुड़ाने वाली तथा हरि पद प्रदान करने वाली श्रीमद्भगवद गीता भगवान के भक्तों को संसार में व्याप्त भय और शोक से मुक्त कर आनंद प्रदान वाली वाणी है।

ईश्वर की परम सत्ता का ज्ञान प्रदान करने वाली इस ईश्वरीय वाणी का सम्पूर्ण विश्व के जिज्ञासु बड़े ही श्रद्धा भाव से इसका अध्ययन करते हैं। भगवद्गीता में आत्म कल्याण की विधियों में ज्ञान योग, कर्म योग और ध्यान योग का बड़ा ही सुंदर विवेचन भगवान श्री कृष्ण ने किया है। मनुष्य में कत्र्तापन का भाव न होना यह ज्ञान योग है। समस्त कर्मों को ईश्वर अर्पण बुद्धि से करना कर्म योग है जिसे बुद्धियोग तथा समत्व योग के नाम से भी संबोधित किया गया है। साधक जब बाहर के विषयों में आसक्ति रहित होकर आत्मा में स्थित ध्यान जनित सात्विक आनंद को प्राप्त होता है, तब वह सच्चिदानंद घन परब्रह्मï परमात्मा के ध्यान रूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनंद का अनुभव करता है। यह ध्यान योग की स्थिति है।

युद्ध भूमि में अपने कत्र्तव्य मार्ग से दिग्भ्रमित अर्जुन यह समझ रहे थे कि ज्ञान मार्ग में कर्म करने की अनिवार्यता नहीं है। वह यशोदानंदन से बार-बार यही पूछ रहे थे कि अगर आपके लिए ज्ञान मार्ग ही श्रेष्ठ है तो आप मुझे भयंकर कर्म मार्ग में क्यों लगाते हैं। वह फिर यही प्रश्र पांचवें अध्याय में पूछते हैं कि ज्ञान योग और कर्म योग में श्रेष्ठï योग कौन-सा है? इसके प्रत्युत्तर में भगवान गोविंद कहते हैं कि कर्मयोग का परित्याग कर ज्ञान योग सिद्ध नहीं होता।

सन्नयासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिब्र्नचिरेणाधिगच्छति॥


अर्थात : हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात मन, इंद्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप का मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्मï परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। महाभारत के युद्ध का मुख्य उद्देश्य था विश्व में शांति की स्थापना करना और ऐसी व्यवस्था देना जिससे मानव समाज को समानता का अधिकार मिले। अधर्म, अन्याय तथा अनीति को जड़ से मिटाने के लिए पालनहार गोविंद भगवान ने अर्जुन के माध्यम से सम्पूर्ण मानव जाति को यह उपदेश दिया कि जहां स्वार्थ तथा लोभ होता है वहां अधर्म पैदा हो जाता है। द्वेष भाव से रहित होना, सबके प्रति करूणा का भाव होना तथा सब भूत प्राणियों के प्रति सद्भावना रखने से ही विश्व का कल्याण संभव है और यही धर्म की स्थापना है। जब भगवान श्री कृष्ण शांति दूत बन कर हस्तिनापुर राज दरबार गए तो उन्होंने वहां के राजनीतिक भ्रष्टाचार को उजागर किया  और जब कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि पर अर्जुन अपने सगे संबंधियों को देख कर मोहग्रस्त हो गए, तब श्रीभगवान ने अर्जुन को कौरवों के भ्रष्ट तंत्र का स्मरण कराते हुए कहा : 

कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमे समुपस्थितम।
अनार्यजुष्टïमस्वग्र्यमकीॢतकरमर्जुन।

अर्थात : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस कारण से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठï पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसका सीधा अर्थ यही है कि यदि अर्जुन युद्ध से पलायन करते तो उनकी प्रतिष्ठा और कीॢत पर आघात लगता। शत्रु पक्ष के लोग उन्हें कायरता और भय के कारण युद्ध से भागा हुआ मानते परंतु भगवान ने अपने भक्त की लाज रखी। उसे भगवद्गीता का उपदेश सुनाकर पाप और अधर्म से बचा लिया। उसे धर्म युद्ध का भागीदार बना कर महान प्रतिष्ठïा से विभूषित किया। इतना ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व की मानव जाति को भगवद्गीता के रूप में ऐसे कर्मयोग का मार्गदर्शन दिया जिसमें ज्ञान, भक्ति और आत्मसंयम का समावेश है। जिसमें ज्ञान कर्म संन्यास, कर्म संन्यास तथा मोक्ष संन्यासयोग का विवेचन है तथा त्याग और संन्यास का समन्वय हैं।
 

अपनी विवेक शक्ति को चरमोत्कर्ष पर ले जाने के इच्छुक ज्ञानी पुरुष सदैव गीता जी के अध्ययन में निरंतर लगे रहते हैं और ज्ञान रूपी निधि का संग्रह करते रहते हैं। गीता जयंती वह पर्व है जिस दिन कुरुक्षेत्र की पावन धरा से पूरे विश्व को आनंद कंद भगवान श्री कृष्ण जी ने आत्मा की अमरता का उपदेश समस्त विश्व के प्राणी मात्र को दिया।

—रविशंकर शर्मा—

Jyoti

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