श्रीमद्भागवत गीता- ‘आत्मा का आकार’

Sunday, Dec 20, 2020 - 07:09 PM (IST)

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श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।


अनुवाद एवं तात्पर्य : जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट  वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पूरे भाग में सुख-दुख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी के शरीर  तक ही सीमित रहती है। एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलत: प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा को बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद  में (5.9) इसकी पुष्टि हुई है : 

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीव: स विज्ञेय: स चानन्त्याय कल्पते।।


‘‘यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए तो इस तरह के प्रत्येक भाग का माप आत्मा का परिमाप है।’’ इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है।

केशाग्रशतभागस्य शतांश: साट्टशात्मक:।
जीव: सूक्ष्मस्वरूपोऽयं संख्यातीतो हि चित्कण:।।

‘आत्मा’ के परमाणुओं के अनंत कण हैं जो माप में बाल के अगले भाग  (नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर हैं।’’

इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं। यह अत्यंत लघु आत्म स्फुङ्क्षलग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म स्फुङ्क्षलग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है। आत्मा की यह धारा (विद्युतधारा) सारे शरीर मे चेतना के रूप में अनुभव की जाती है और यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है।

Jyoti

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