पंढरपुर मेला: कार्तिक मास में लगता है भगवान विट्ठल का मेला, जानिए कैसे यहां हुए थे प्रकट

Tuesday, Nov 24, 2020 - 01:27 PM (IST)

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सनातन धर्म में कार्तिक मास का का अधिक महत्व है, इसलिए इस मास में आने वाले तमाम दिन त्यौहारों का महत्व भी अधिक बढ़ जाता है। मगर इस मास के सबसे खास दिन की बात करें तो वो दिन होता है, जब श्री हरि विष्णु अपने 4 माह की निद्रा से जागते हैं। इस दिन को देशभर के विभिन्न हिस्सों में बहुत ही धूम धाम से मनाया जाता है। अगर बात करें इस बार कि देवउठनी एकादशी की, इस बार देवउत्थानी एकादशी 26 नवंबर, 2020 को मनाई जाएगी जिसके साथ ही इस दिन तुलसी विवाहभी संपन्न होगा।

मगर इसके अलावा भी इस दिन कई अन्य तरह के कार्य किए, मेले व आयोजन किए जाते हैं, जिसमें से एक है पंढरपुर का मेला। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पंढरपुर की यात्रा आषाढ़ मास के साथ-साथ कार्तिक शुक्ल एकादशी को निकाली जाती है। वारकरी संप्रदाय के लोग महाराष्ट्र के पंढरपुर में देवोत्थान एकादशी पर यात्रा के लिए आते है, जिस यात्रा को वारी देना के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है प्रत्येक वर्ष देवशयनी एकादशी के मौके पर पंढरपुर में लाखों ही लोग भगवान विट्ठल जो श्री हरि विष्णु के ही अवतार हैं, और देवी रुकमणि की महापूजा देखने के लिए महाराष्ट्र के स्थित श्री कृष्ण मंदिर में इक्ट्ठे होते हैं।


आइए जानते हैं इस मंदिर से व यहां लगने वाले मेले से जुड़ी खास जानकारी-
महाराष्ट्र के पंढरपुर में स्थित इस मंदिर में विराजित भगवान श्रीकृष्ण को विठोबा कहा जाता है, जिस कारण मंदिर का एक नाम विठोबा मंदिर भी है। इस धार्मिक परिसर को भगवान विठ्ठल-रुक्मिणी मंदिर के रूप में जाना जाता है। जहां भगवान विठोबा व उनकी पत्नी रखुमई लोगों की आस्था का मुख्य केंद्र है। महाराष्ट्र का यह सबसे लोकप्रिय मंदिर पश्चिमी भारत के दक्षिणी महाराष्ट्र राज्य में भीमा नदी के तट पर शोलापुर नगर के पश्चिम में स्थित है।

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस पावन नदी चंद्रभागा में स्नान करने से जातक को अपने पापों से मुक्ति मिलता है। अगर मंदिर की बात करें, यहां आने वाले हर भक्त को भगवान विठोबा की प्रतिमा के चरण स्पर्श करने की अनुमति है। लोक मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर की स्थापना 11 वीं शताब्दी में की गई थी, हालांकि मुख्य 12 वीं शताब्दी में देवगिरि के यादव शासकों द्वारा कराया गया था। 

मेला और यात्रा :
धार्मिक प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार भगवान विष्णु के अवतार विठोबा और उनकी पत्नी रुक्मणि को समर्पित इस शहर में 1 वर्ष में कुल 4 त्यौहार मनाए जाते हैं, जिसे मनाने के लिए लोग दूर दूर से यहां आकर एकत्र होते हैं।

इनमें सबसे ज्यादा श्रद्धालु आषाढ़ के महीने में फिर क्रमश: कार्तिक, माघ और श्रावण महीने में एकत्रित होते हैं। ऐसी मान्यताएं है कि ये यात्राएं लगभग पिछले 800  सालों से लगातार आयोजित की जाती आ रही हैं। देश के कोने-कोने से पताका-डिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर लोग पैदल चलकर पहुंचते हैं। इस यात्रा क्रम में कुछ लोग अलंडि में जमा होते हैं, कुछ पुणे तथा बहुत से लोग जजूरी होते हुए पंढरपुर पहुंचते हैं।

कैसे यहां विराजमान हुए थे भगवान विट्ठल-
कथाओं के अनुसार 6वीं सदी में संत पुंडलिक हुए थे, जो अपने माता-पिता के परम भक्त थे। भगवान श्रीकृष्ण को वह अपना इष्टदेव मानते थे, और पूरी निष्ठा भावना से उनकी पूजा-अर्चना करते थे। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इनकी इसी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अपने पत्नी रुकमणी के साथ प्रकट हुए।

और प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।'

तब पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा और कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन: अपने पिता की सेवा में लीन हो गए। भगवान ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गए।

ऐसा कहा जाता है कि ईंट पर खड़े होने के कारण श्री विट्ठल के विग्रह रूप में भगवान की लोकप्रियता गई। और आगे चलकर यही स्थान पुंडलिकपुर या अपभ्रंश रूप में पंढरपुर कहलाया, जो वर्तमान समय में महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ है। आज भी यहां भक्तराज पुंडलिक का स्मारक स्थित है।

Jyoti

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