भगवत गीता से जानिए अपने दुखों का कारण

Thursday, Apr 26, 2018 - 11:56 AM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग)


लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ।। 25।।


अनुवाद- जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में लीन हैं, जो समस्त जीवों के कल्याण-कार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।


तात्पर्य- केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याणकार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतय:  कृष्णभावनाभावित है। जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण ही सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जब कर्म करता है, तो सब के हित को ध्यान में रखकर करता है। परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है। अत: समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याण-कार्य है। 


कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्त न हो। कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिल्कुल संदेह नहीं रहता। वह इसलिए संदेह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है। ऐसा है यह देव प्रेम।


जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने संबंध के प्रति पूर्णतय: सचेष्ट रहता है तो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले ही वह भौतिक शरीर के जाल में फंसा हो।  

 

Niyati Bhandari

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