ये काम लोक-परलोक में दिखाएंगे कमाल

Tuesday, Jun 12, 2018 - 03:16 PM (IST)

ये नहीं देखा तो क्या देखा (देखें VIDEO)

मानव जीवन अनमोल भी और दुर्लभ भी
यत्करोषि यदश्रासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। —गीता 9/27



व्याख्या: हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।

मनुष्य-जीवन अनमोल भी है और दुर्लभ भी। अनमोल इसलिए क्योंकि पूरे संसार की सम्पदा से एक श्वास भी खरीदा नहीं जा सकता। दुर्लभ इसलिए क्योंकि जलचर, थलचर, नभचर सब प्राणियों से बिल्कुल विलक्षण अत्यंत श्रेष्ठ! यही जीवन है, जिसमें खाने-पीने, सोने एवं परिवार बनाने व चलाने से अलग भी कुछ किया जा सकता है। यही जीवन है जिससे लोक-परलोक दोनों बनाए जा सकते हैं।


यह श्लोक लोक-परलोक के दोनों भावों को लिए हुए है। लौकिक कर्मों के भाव से शारीरिक खाना-पीना, व्यवहार आदि तथा साथ ही पारिवारिक, व्यापारिक, सामाजिक दायित्वों की पूर्ति। परलौकिक कर्मों के रूप में-यज्ञ, दान और तप! इस श्लोक के माध्यम से गीता उपदेष्टा कह रहे हैं-यह सब कर, लेकिन समर्पण बुद्धि से।

अहंकार अथवा अहं बुद्धि का त्याग ही गीता का वास्तविक समर्पण है। कर्म कोई भी है (यत्करोषि) ऐसा भाव बनाकर करो- मैं नहीं कर रहा भगवन कृपा से हो रहा है। वस्तुत: अहंकार ही सबसे बड़ी समस्या है। द्वापर कालीन महाभारत के मूल में भी दुर्योधन का अहंकार था, महाभारत घर-परिवार में या कहीं आज भी है तो मुख्य कारण अहंकार ही होगा।

जहां अहंकार है, वहां आपसी प्यार बन ही नहीं सकता, जहां प्यार नहीं, वहां शांति होगी ही नहीं, भले ही मकान कितना बड़ा, कितनी ए.सी. की शीतलता लिए हुए क्यों न हो! सच्चाई यह है कि प्रेम, सद्भाव, गृहस्थाश्रम की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। आओ, घर-घर में इस सम्पत्ति को सुरक्षित करें, अहंकार को जीवन एवं परिवार की समस्या न बनाएं! समर्पण भाव अपनाएं! हे प्रभु! सब आपकी कृपा से हो रहा है। अपनी कृपा बनाए रखें!
यदश्नासि-जो खाता है, वह भी समर्पण भाव से! 

भगवान को भोग की परंपरा इसी दृष्टि से बहुत सार्थक, वैचारिक और व्यावहारिक है! भगवान् को अर्पण करके खाना हमारी श्रद्धा, आस्था प्रकट करता है, भगवान के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाता है-हे प्रभो! आपका दिया हुआ पहले आपको अर्पण! साथ ही भाव परिवर्तन करता है। भावों में शुद्धि और सात्विकता आती है, जिससे भोजन केवल खाना नहीं अपितु प्रसाद, गीता के अनुसार तो अमृत बन जाता है। विज्ञान और चिकित्सा-विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि तनाव, आवेश और क्रोध में किया गया भोजन विपरीत प्रभाव डालता है। इसलिए आओ, भोजन को अमृत प्रसाद बनाएं।

आगे इस श्लोक में यज्ञ, दान, तप को समर्पण भाव से करने की प्रेरणा है। इसे गीता ने अनिवार्य रूप से करते रहने का आग्रह भी किया है (गीता 18/5)।

गृहस्थ जीवन में यह आवश्यक भी है। समय-समय पर घर में हवन, यज्ञ होना पारिवारिक वातावरण की शुद्धि, सद्भावना एवं देवों की अनुकूलता-प्रसन्नता का बहुत सीधा-सा साधन है। मूक प्राणियों तथा दीन-दुखी, असहाय, जरूरतमंदों के लिए यथा योग्य घर से कुछ निकले यह यज्ञ भी है और दान का यथार्थ स्वरूप भी। कष्ट, असुविधा होते हुए भी अच्छाई के मार्ग पर आगे बढऩे तथा पुण्यों की कमाई करते रहने में तत्परता तप है।

यह सब करें, लेकिन भगवान् को अर्पण करके। हे प्रभो! आप अपनी कृपा से मेरे द्वारा ऐसा सत्कार्य करवा रहे हैं-यह मेरा सौभाग्य है। रात्रि विश्राम से पूर्व इस श्लोक एवं श्लोक के भाव का अवश्य स्मरण करो। दिन भर जो हुआ, जो मिला-सब आपका आपके अर्पण-ऐसा भाव बनाकर विश्राम करो।

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Jyoti

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