भक्ति की शक्ति का साक्षात है ये मंदिर, पढ़ें कथा

Tuesday, Dec 31, 2019 - 10:00 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

आमेर नरेश पृथ्वीराज कछवाहा की रानी बाला बाईजी बालपन से ही बड़ी भगवद्भक्त थीं। संत कृष्णदासजी पयहारी से उन्होंने मंत्रदीक्षा ली थी। एक बार संत कृष्णदासजी अपनी शिष्या रानी की प्रार्थना पर उनके यहां पधारे। बाला बाईजी ने अनुनय-विनय कर उन्हें रोक लिया। उनकी धूनी अपने महल में लगवाई और अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न करके वचन ले लिया कि उन्हें बताए बिना बाबा वहां से कहीं न जाएं। राजा भी संत का शिष्य बन गया।

संत कुछ दिन वहां रुके पर समाज में भक्ति के प्रचार का उद्देश्य सामने होने से उन्हें वहां अधिक रहना संभव नहीं था। वहां से विदा लेने के लिए उन्होंने एक लीला रची। एक दिन वह भगवान नृसिंह के मंदिर में कीर्तन कर रहे थे। राजा और रानी भी वहां उपस्थित थे। कीर्तन समाप्त होने पर संत ने सहज भाव से कहा, ‘‘अब जा रहा हूं।’’

रानी समझी कि धूनी पर जाने को कह रहे हैं। उन्होंने भी कह दिया, ‘‘पधारो महाराज! रानी का इतना कहना था कि संत वहां से चल दिए।’’

राजा-रानी को जब कृष्णदासजी के स्थान छोड़कर निकल जाने की बात पता चली तो उनसे अपने गुरु का वियोग सहन न हुआ। दोनों अन्न-जल त्यागकर पड़े रहे। तब गुरु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, ‘‘तुम लोग दुख न करो। मेरे चरण चिन्हों के अर्चन-वंदन में सुख मानकर भगवद् भजन करो। अब अन्न-जल ग्रहण करो।’’ राजा-रानी संतुष्ट हुए और गुरुदेव के आदेशानुसार भगवदभजन, ध्यान, पूजन आदि करने लगे।

गुरुदेव की आज्ञानुसार चलने से राजा-रानी दोनों साधना से उन्नत होते गए। एक बार राजा पृथ्वीराज नर-नारायण का दर्शन करने बद्रिकाश्रम गए। वे रानी को महल में ही छोड़ गए। रानी की भी भगवद्-दर्शन की उत्कंठा जागी। तब संकल्प करते ही वह राजा से पूर्व मंदिर पहुंच गईं। राजा जब मंदिर में पहुंचे तो संयोग से रानी के पीछे खड़े हो गए पर उन्हें पहचान न पाए। उन्होंने कहा, ‘‘बाईजी! जरा बगल हो जाइए, मैं भी दर्शन कर लूं।’’

रानी बगल हटीं तो राजा को लगा कि ये रानी हैं। पर इसे असंभव जान उन्होंने ध्यान उधर से हटा लिया और तन्मय हो भगवान के दर्शन करने लगे। रानी जैसे बद्रिकाश्रम गई थीं, वैसे ही लौट आईं।

जब राजा लौटे तो उन्हें प्रणाम कर रानी ने राजा द्वारा मंदिर में किया गया ‘बाई’ संबोधन उद्धृत करते हुए कहा, ‘‘अब आप मुझे ‘बाईजी’ ही पुकारा करें।’’

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें विश्वास हो गया कि जिस महिला से उन्होंने मंदिर में बगल हो जाने को कहा था, वह उनकी रानी ही थी। वह समझ गए कि रानी गुरुदेव की कृपा से सिद्धावस्था प्राप्त कर चुकी हैं।

रानी ने कहा, ‘‘मेरे प्रति वैसा ही भाव रखें, जैसा ‘बाई’ के प्रति रखा जाता है। नर-नारायण के सामने उनकी इच्छा से हुआ यह नया रिश्ता कभी न टूटे।’’

उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक रानी सेे अपना नया रिश्ता स्वीकार किया और अंत तक उसे निभाया। गुरुकृपा से राजा भी सिद्धावस्था को प्राप्त हुए। 

संत कृष्णदासजी ने राजा-रानी को श्री नृसिंहरूप शालग्राम दिए थे और आशीर्वाद दिया, ‘‘जब तक नृसिंह पौली में, तब तक राज झोली में।’’

पृथ्वीराज ने आमेर की पहाड़ी पर एक मंदिर बनवाया। उसमें नृसिंहदेव को विराजमान किया। वह मंदिर ‘नृसिंह बुर्जा’ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। जब तक संत के वचनों का पालन किया गया अर्थात नृसिंहरूप शालग्राम को मंदिर की देहरी के बाहर नहीं लाया गया, तब तक मुसलमान बादशाहों का आतंक और उनके पश्चात अंग्रेजों की कृदृष्टि इस राज्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकी। परंतु दैवयोग से एक बार किसी ने शालग्राम को चुरा लिया। इस कारण से भारत की आजादी के बाद जब सभी राज्यों का भारत में विलय हुआ तब आमेर (जयपुर) का भी विलय हो गया। 


 

Niyati Bhandari

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