शिव जी से जानें मन का मौन रहना क्यों है ज़रूरी?

Wednesday, Dec 16, 2020 - 03:30 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
हमारे शास्त्रों में मानव के जीवन से जुड़ी हर परेशानी हका हल वर्णित है, देर है तो उस ज्ञान को अर्जित करने की और उस पर अमल करने की। अक्सर लोगों को अपनी परेशानियां का बखान करते देखा जाता है, परंतु कहा जाता है अगर इंसान इन समस्याओं को लोगों से न बांट कर अपने शास्त्रो में इन परेशानियां का हल ढूंढें तो उसकी तमाम परेशानियां का अंत हो सकता है। आज हम आपको कुछ ऐसा ही बताने जा रहे हैं, जिसे पढ़ने के बाद आपको अपने जीवन में एक अलग ही प्रकार की मदद मिलेगी। 

आप में से जिन लोगों को कभी भी किसी तरह का मानसिक तनाव रहा होगा, उन्होंने अगर किसी ज्योतिषी के पास जाकर अपनी ये समस्या बताई होगी तो उन्हें इसका कारण चंद्रमा बताया जाता है। कहा जाता है मन का कारण चंद्रमा को माना जाता है। जब हमारा मन अशांत होता है, तो इसका अर्थात होता है कि जातक की कुंडली में चंद्रमा की स्थिति अच्छी नहीं। तो उधर धार्मिक शास्त्रों की मानें तो उसमें भी कुछ ऐसा ही बताया जाता है।  

इस संदर्भ में अगर शिव पुराण में एक दृष्टि डाली जाए तो समझा जा सकता है कि चंद्रमा का हमारे जीवन में क्या महत्व है। और कैसे कोई भी व्यक्ति अपने मन पर काबू पा सकता है। तो आइए जानते हैं शिव जी के अनुसार मानव के मन का मौन होना क्यों ज़रूरी है, क्या इससे मन की शांत किया जा सकता है या नहीं। 

शिव पुराण के नुसार चंद्रमा उसी जल में प्रतिबंधक होता है, जो जल स्थिर होता है, जो जल शांत होता है। यही समस्या होती है कि मन की, जो कभी शांत नहीं हो पाता। जहां शांति नहीं वहां कुछ भी नहीं रूकता। समुद्र की लहरों की भांति विचारों का उपद्रव, मन को निरंतर व स्थिर रखता है। कुछ भी सुनने समझने के लिए मन का शांत होना बहुत आवश्यक होता है किंतु मन मौन रहना नहीं जानता, वो तो निरंतर कुछ न तुछ कहता रहता है, शब्दों का आक्रमण उसके भीतर चलता रहता है, और यही आक्रमण है जिसके कारण व्यक्ति कभी भी शब्दों के परे नहीं जा पाता। जहां जीवन की सत्यता का वो उसकी प्रतिक्षा कर रहा होता है। 

परिश्रम जीवन का सबसे अहम कार्य है। इससे हमारे पेट की भूख मिटती है। परंतु मानव जीवन में परिश्रम से अर्थात केवल अपने पेट की भूख को मिटाना नहीं होता। बल्कि हमारे जीवन का उद्देश्य है ईश्वर के और समीप आना। और ऐसा हो पाना संभव केवल आत्मा के विकास से ही संभव है। जो विकास चिंतन, मनन, संगीत और संतसंग से ही संभव है। आत्मा का यही विकास मनुष्य को मनुष्यता से उभारकर ईश्वर कीओर ले जाता है। इसलिए केवल यह सोचना कि जो परिश्रम नहीं कर रहे वो आलसी है, ये उचित नहीं है। जितना प्रयास शारीरिक परिश्रम के लिए करना पड़ता है। उससे कई गुना  प्रयास की आवश्यकता होता है मानसिक और आध्यात्मिक कार्य में होता है। अपने स्वार्थ से ऊपर उठना पड़ता है। अपने आराध्य में ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। समर्पण सरल नही हैं। 

Jyoti

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