शहीद चन्द्रशेखर आजाद ने देश के लिए जान देकर लिखी वीरता की एक नई परिभाषा

Tuesday, Feb 27, 2018 - 02:13 PM (IST)

छोटी आयु में अंग्रेजों के शासन को जड़ से उखाड़ फैंकने की प्रतिज्ञा करने वाले अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का नाम आते ही हर भारतवासी का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। 23 जुलाई 1906 को पंडित सीताराम तिवारी के घर जन्मे इस बालक ने बनारस में रहते अपने फूफा जी पंडित शिव विनायक जी के सान्निध्य में ‘काशी विद्यापीठ’ में संस्कृत भाषा का अध्ययन शुरू किया। उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी। 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार से व्यथित चंद्रशेखर गांधी जी के असहयोग आंदोलन में पहली बार भाग लेकर अपने विद्यालय के छात्रों संग गिरफ्तार हुए। धरने पर बैठे चंद्रशेखर जब पकड़े गए तो उन्हें एक पारसी न्यायाधीश द्वारा पंद्रह बैंतों की सजा सुनाई गई। 14 साल के इस बहादुर बालक के मुंह से हर बैंत की मार पर ‘भारत माता की जय’ ही निकला। 1922 में अचानक से गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन बंद किए जाने के बाद से इनका मन देश को आजाद कराने के लिए सशस्त्र क्रांति की ओर मुड़ गया।


उस समय बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ बन चुका था। आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो चुके चंद्रशेखर की मुलाकात यहां प्रणवेश चटर्जी और मन्मथनाथ गुप्त से हुई और वह क्रांतिकारी दल के सदस्य बन गए। दल का नाम था हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ। आजाद की सबसे पहली सक्रियता काकोरी कांड यानी काकोरी डकैती में रही। 9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर सहारनपुर-लखनऊ सवारी गाड़ी रोक कर उसमें रखा अंग्रेजों का खजाना लूट लिया। बाद में इसमें शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए पर आजाद कभी पुलिस के हाथ नहीं लगे। 


इसके कुछ समय बाद इन्होंने नए सिरे से दल का संगठन किया जिसका नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रखा गया। आजाद इस दल के कमांडर थे जिस कारण गुप्त रूप से वह इससे संबंधित कार्य धीरे-धीरे आगे बढ़ाते रहे। उत्तर प्रदेश और पंजाब तक इनका कार्यक्षेत्र फैल चुका था और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी इनके साथी बन चुके थे।


17 दिसम्बर,1928 को भगत सिंह और राजगुरु के साथ आजाद ने लाहौर में ब्रिटिश आफिसर जॉन सांडर्स को गोलियां मार कर लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। समस्त भारत में क्रांतिकारियों द्वारा उठाए इस कदम पर उन्हें सराहना मिली। इसके बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इनके नेतृत्व में 8 अप्रैल 1929  को दिल्ली की केंद्रीय असैम्बली में बिना किसी को नुक्सान पहुंचाए बम विस्फोट किया ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए काले कानूनों का विरोध किया जा सके। इसके बाद दोनों ने स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया। जो क्रांतिकारी बच गए, उनके साथ चंद्रशेखर आजाद ने मिल कर फिर से क्रांतिकारी पार्टी को संगठित किया, साथ ही भगत सिंह व साथियों को जेल से छुड़ाने के कई प्रयास भी किए पर सब असफल रहे।


27 फरवरी, 1931 को आजाद के एलफ्रैड पार्क इलाहाबाद में होने की सूचना पुलिस को दे दी गई और पुलिस ने पार्क को चारों ओर से घेर लिया। 40 मिनट तक पुलिस और आजाद के मध्य गोलियां चलती रहीं। जब आजाद के पास केवल एक गोली ही बची तो उन्होंने पिस्तौल अपनी ओर घुमा ली और स्वयं पर गोली चलाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। उन्होंने देश के लिए अपनी जान देकर वीरता की एक नई परिभाषा लिखी।     

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