Sarpara Village: कन्या से हुआ 9 नागों का जन्म, रहस्यमयी है सरपारा का इतिहास
punjabkesari.in Sunday, Mar 23, 2025 - 02:39 PM (IST)

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Devta Jal Nag Temple in Sarpara Shimla: सरपारा गांव हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 168 किलोमीटर की दूरी पर रामपुर क्षेत्र में स्थित है। सरपारा में प्रकृति और संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है। यहां की ऐतिहासिक परम्परा भी बहुत पुरानी है। यह वही भूमि है जहां पर नौ नाग देवों की उत्पत्ति हुई थी लेकिन इनकी उत्पत्ति से पूर्व नाग इतिहास को जानना आवश्यक हो जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी के सात मानस पुत्रों में से एक मरीचि ऋषि थे, जिन्होंने ऋषि कर्दम की पुत्री कला से विवाह किया था। इन्हीं के प्रतापी पुत्र कश्यप ऋषि हुए थे। कश्यप ऋषि की 13 पत्नियां थीं। उनमें से उनकी एक पत्नी कटु ने ही नाग वंश का आरंभ किया। माता कटु और ऋषि कश्यप के आठ नाग पुत्र थे : शेषनाग, जिन्हें अनंत नाम से भी जाना जाता है, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।
सरपारा गांव जिन नौ नागों की जन्मभूमि है, वे शेषनाग वंश से संबंध रखते हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि वर्तमान समय में भी सरपारा के स्थानीय मंदिर में सतनाका यानी शेषनाग का निवास स्थान है। सरपारा के इष्ट देव ‘जल नाग जी’ हैं, जोकि नौ नागों के पिता भी हैं। प्रचलित कथाओं के अनुसार नौ नागों की उत्पत्ति की यह कथा बहुत पुरानी है। ऐसा माना जाता है कि यह द्वापर युग का घटनाक्रम है। सरपारा के स्थानीय निवासियों के कथनानुसार यहां एक तेजस्वी कन्या का जन्म हुआ था। कन्या के जन्म कुल को लेकर लोगों के मध्य मतभेद देखने को मिलता है।
एक मतानुसार माना जाता है कि वह कन्या रायपालटू कुल में जन्मी थी, जबकि एक अन्य मतानुसार कन्या का कुल परशेटका था, जबकि कुछ मतों की मानें तो यह उनका ननिहाल था लेकिन इस बात में कोई संकोच या संदेह नहीं है कि वह कन्या सरपारा की भूमि में ही जन्मी थी।
उस विलक्षण कन्या का नाम लंदूदि था। वह अक्सर अपने पशुओं को चराने सरपारा के सौर के आसपास ले जाया करती थीं। बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक वह निरंतर सौर क्षेत्र के पास जाती थीं। किशोरावस्था में एक दिन वह पुन: पशुचारण के लिए सौर क्षेत्र में गई थीं। तब उन्हें वहां पर सौर में लगे अत्यंत रमणीय पुष्प दिखे। मोहक पुष्पों को देख कर लंदूदि उन्हें स्पर्श करने की इच्छा से उनके पास आईं लेकिन पुष्पों के पास आते ही पुष्पों की दूरी उनसे बढ़ती जाती।
अंतत: जब उनको उस पुष्प को चुनने का अवसर मिला तो सौर से जल नाग प्रकट हुए और लंदूदि को अपने साथ सौर के भीतर ले गए। यह माना जाता है कि इसके बाद जलदेवता और मां लंदूदि का विवाह हो गया। कुछ समय पश्चात मां लंदूदि और जलनाग सौर से बाहर आए और सरपारा से ही कुछ दूर ऊंचे स्थान नागजानी ठेर में निवास करने लगे। इस घटनाक्रम में मां लंदूदि गर्भधारण कर लेती हैं।
एक दिन मां उस स्थान से अपने घर को देख कर विचलित हो रोने लगती हैं। कारण पूछने पर मां लंदूदि जल देवता को अपने घर जाने की इच्छा प्रकट करती है तो जल नाग भी उनकी इच्छा को सहर्ष स्वीकार करते हैं। कुछ समय बाद माता लंदूदि नौ नाग बच्चों को जन्म देती हैं लेकिन लोक लाज के चलते माता द्वारा उन बच्चों को टोकरी में छुपा कर गौशाला में रख दिया जाता है।
माता सुबह-शाम नाग बच्चों को स्तनपान करवाया करती थीं लेकिन अब नाग बच्चे बड़े हो रहे थे और माता का दूध सबके लिए पर्याप्त नहीं था, इस वजह से माता गाय का दूध भी बच्चों को देने लगीं। गाय के दूध में कमी से माता लंदूदि की मां को शंका उत्पन्न हुई। इसी शंका की पुष्टि के लिए माता लंदूदि जब कुछ कार्य करने खेत गई थीं तब उनकी मां ने उनके पीछे से गौशाला जाना निश्चित किया।
जब वह वहां पहुंचीं तो उन्होंने वहां पर टोकरी में नौ नाग बच्चों को देख लिया। नागों द्वारा उन्हें अपनी माता समझे जाने पर वे उनसे लिपट गए। यह सब माता लंदूदि की मां के लिए असहनीय था। अत: उन्होंने नागों को आंगन में आग के ऊपर रखे बर्तन में फैंक दिया। आग की तपिश से नाग बच्चे इधर-उधर भागने लगे। इसी में तीन नाग बच्चे साथ लगती कुल्लू की सीमा में प्रवेश कर गए जबकि कुछ नाग जानी ठेर से ऊपर की ओर चलने लगे। वर्तमान में ये सभी नाग देवता अलग-अलग स्थानों पर विराजित हैं जिसमें माता लंदूदि के सबसे ज्येष्ठ नाग पुत्र सराहन के नजदीक स्थित गांव बौंडा में विराजित हैं और बौंडा गांव के इष्ट देव हैं जबकि उनसे छोटे भाई काओबिल गांव में स्थानीय देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
इसके अलावा एक अन्य नाग सुंगरी बाहली होते हुए रोहडू खाबल में जाकर बस गए। एक नाग मधुमक्खी के रूप में मंडी जिले में प्रवेश कर गए जो वर्तमान समय में माहूनाग के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक नाग देव जगोरी गांव के इष्ट देवता हैं। एक खरगा में और एक देवता कुल्लू में मुख्य देवता के रूप में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन नामों में सबसे छोटे नाग आग लगने के बाद भी टोकरी में रह गए थे जोकि वर्तमान में सरपारा गांव में अपने पिता के साथ ही रथ पर विराजित हैं।
माता लंदूदि ने आग वाले घटनाक्रम के पश्चात उस स्थान को छोड़ने का निर्णय कर लिया था। तब बौंडा नाग अपनी माता को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन जब वह सतलुज के किनारे पहुंचे तो मां सतलुज के विशाल प्रवाह को देख कर डर गईं। बौंडा नाग ने विशाल रूप धारण कर सतलुज के आर-पार स्वयं को स्थापित कर माता को स्वयं के ऊपर से चल कर सतलुज पार करने की विनती की पर माता अपने पुत्र के ऊपर से सतलुज पार करने में असमर्थ हो गईं।
अंतत: उन्होंने काओबिल में ही रहने की अपनी इच्छा प्रकट की और नाग पुत्र ने भी यह बात मान ली। इसके बाद माता ने काओबिल की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उन्हें अत्यंत आकर्षक झरना दिखाई दिया तो माता ने काओ छोड़ उस झरने के पास ही रहने का निर्णय किया। आज भी यह स्थान सकारात्मक ऊर्जा से पूर्ण है। सरपारा गांव अपनी इसी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण वर्तमान समय में एक अलग पहचान लिए है। जहां प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य और प्राचीनता इसे और अधिक सुशोभित करती है।