क्या आप भी इंद्र बनना चाहते हैं

Thursday, Apr 26, 2018 - 08:59 AM (IST)

आत्रेय महर्षि अत्रि के पुत्र थे। महर्षि अत्रि महाराजा पृथु से धन प्राप्त कर उसे पुत्रों को देकर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम में चले गए। उनके पुत्र आत्रेय तपोवन में आश्रम बनाकर अपनी पत्नी के साथ तपस्वी जैसा जीवन बिता रहे थे।


एक बार वह कुछ ऋषियों के साथ देवलोक की राजधानी अमरावती गए और अमरावती की वैभवशाली नगरी में इंद्र का दरबार देख कर दंग रह गए। इतना ऐश्वर्य, वैभव, सौंदर्य, चमक-दमक और धन संपदा। यह सब देख कर और इस बारे में सोच-सोचकर उनका मन चकराया। अपने जीवन में इंद्र की तुलना कर उन्हें अपने तपोवन के तपस्वी जीवन से वितृष्णा हुई और वह सोचने लगे, ‘‘मेरा जीवन भी क्या जीवन है। अभावों में किस तरह बीत रहा है। देवलोक में इंद्र का जीवन देखिए, कितना वैभवशाली है और मेरा जीवन भिक्षुक वनवासी तपस्वी का।’’


चमक-दमक से मोहित ऐश्वर्य भोग का बीज उनके मन में उग आया। लौट कर आए तो जप-तप सब भूल गए। बस एक ही चिंता हो गई कि किस तरह अमरावती जैसा ऐश्वर्य भोगने को मिले। वैराग्य तथा भक्ति-भाव भूल गए। अब आठों पहर अमरावती और इंद्र जैसे जीवन की चिंता लग गई।


उनकी दशा देख कर उनकी पत्नी ने बहुत समझाया कि आप ऋषि पुत्र होकर धन-वैभव के मोह में क्यों पड़ गए हैं? अपना ही धर्म-कर्म श्रेष्ठ होता है। दूसरे का धर्म-कर्म कष्टकारक होता है। शास्त्रोक्त है ‘श्रेयान स्वधर्मी परधर्मो भयावह:।’ जो चमकता है वह सब सोना नहीं होता।’


पर आत्रेय की समझ में जब कुछ न आया तो पत्नी ने कहा, ‘‘आप त्वष्टा ऋषि के पास जाएं और उन्हें अपना दुख बताएं। वह  बहुत समर्थ हैं। अपने तपोबल से वह कुछ भी कर सकते हैं अगर वे प्रसन्न हो गए तो आपके लिए अमरावती का सृजन कर आपको इंद्र पद तक दे सकते हैं।’’


कामनाओं से पीड़ित व्यक्ति को विवेक नहीं रहता। आत्रेय तत्काल त्वष्टा ऋषि के पास गए और अपनी इच्छा बताकर कहा, ‘‘महर्षि ! आप अपने तपोबल से एक बार मुझे वैसा सुख भोगने का अवसर प्रदान कीजिए।’’


त्वष्टा ऋषि सब समझ गए कि आत्रेय का मन एक बार वैसा सुख भोगे बिना शांत न होगा अत: उन्होंने कहा, ‘‘ऋषि अत्रि की परम्परा निभाने की बजाय इंद्र के ऐश्वर्य की कामना करने लगे हो। ठीक है, मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति का प्रबंध करता हूं। आपके लिए मैं अमरावती का ऐश्वर्य सृजन करता हूं।’’


आश्वस्त होकर आत्रेय चले आए। जब अपने आश्रम में आए तो वहां का दृश्य ही बदला हुआ था। लगा जैसे इंद्र लोक ही उतर आया हो। वह अपना तपोवन तथा तपस्वी जीवन भूल गए। देव लोक की भव्यता में वह स्वयं को इंद्र तथा पत्नी को इंद्राणी के रूप में पाकर देवोपम सुख भोगने लगे।


राक्षसों को पता लगा कि भू-मंडल पर भी इंद्र पैदा हो गए हैं। अमरावती बस गई है। इंद्र लोक का वैभव वहां भी हो गया है, तो बस राक्षसों ने कहा एक और इंद्र लोक लूटने को मिलेगा। एक और इंद्र को हराएंगे।


सारे राक्षसों ने आत्रेय की अमरावती पर धावा बोल दिया। देवलोक के इंद्र तो देव शक्ति से सम्पन्न थे। राक्षसों का सामना कर सकते थे। आत्रेय तो बेचारे तपस्वी थे। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान कहां? राक्षसों का हमला होते ही भाग खड़े हुए। कहां देवसुख भोग कर खुश हो रहे थे। कहां अब जान के लाले पड़ गए। पत्नी सहित भाग कर छिपने की जगह ढूंढते फिर रहे थे। कहीं शरण न दिखी तो भाग कर त्वष्टा ऋषि के पास पहुंचे और कहा, ‘‘ऋषिवर! प्राणों पर संकट आ पड़ा है। अब जीवन ही न रहेगा तो ऐश्वर्य भोग का क्या करेंगे? आप अपने तपोबल से उत्पन्न इस अमरावती को हटाएं। मैंने इंद्र होने का दुख भी देखा। मेरी तो कुटिया ही भली थी।’’


त्वष्टा ऋषि ने हंस कर कहा, ‘‘आत्रेय! मनुष्य की यह प्रवृत्ति होती है कि जितना उसके पास होता है उससे वह संतुष्ट और सुखी नहीं रहता। जो उसके पास नहीं होता उसी को पाने के लिए असंतुष्ट तथा दुखी रहता है पर एक बात ध्यान रखो, बाहर से जो ऐश्वर्य और भव्यता दिखाई देती है, अंदर से वह कितना दुख और त्रास देने वाली होती है, वह दिखाई नहीं देती। इंद्र का वैभव देख कर तुम मोह में पड़े, पर जब उसे प्रत्यक्ष देखा तो पता लगा कि उस सुख में भी वह  किस तरह अपने शत्रुओं के आक्रमण की आशंका से हमेशा दुखी रहते हैं।’’


सुख-दुख के दोनों पहलू देखकर आत्रेय को ज्ञान हो गया और वह तपस्वी जीवन में ही सुखी हुए। 


(ब्रह्म पुराण से राजा पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)
 

Niyati Bhandari

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