Monday special: जब भगवान शिव भागे एक असुर से डर कर...

Monday, Oct 02, 2023 - 07:04 AM (IST)

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Bhagwan shiv Vrikasura ki katha: प्राचीन समय की बात है महर्षि नारद भूमंडल में घूम रहे थे तो उन्हें वृकासुर नाम का राक्षस मिला। नारद को देखते ही उसने कहा, ‘‘देवर्षि! आप अच्छे अवसर पर आए। मैं आपसे एक सलाह लेना चाहता हूं। बताइए ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन देवता ऐसा है, जो शीघ्र और थोड़ी ही तपस्या में प्रसन्न हो जाता है?’’


नारद ने सोचा कि यह असुर इस समय जैसा अपना जीवन बिता रहा है, आगे भी ऐसे ही बिता सकता है, पर लगता है अब यह त्रय देवों में किसी की विशेष आराधना कर वरदानी होना चाहता है। वर पाने के बाद इसकी आसुरी शक्ति बहुत ही प्रबल हो जाएगी। फिर यह ब्राह्मणों, ऋषियों तथा देवों को सताया करेगा। नारद यह सोच तो रहे थे, पर वृकासुर के प्रश्न का उत्तर टालने का मतलब था, अपने लिए संकट पैदा करना। अत: उन्होंने बहुत सोच-विचार कर कहा, ‘‘वृकासुर! वैसे तो त्रय महादेवों में से तुम किसी की भी तपस्या कर अपना मनोरथ पूरा कर सकते हो। ब्रह्मा और विष्णु जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उनके लिए बहुत वर्षों तक कठिन तपस्या करनी पड़ती है। यह भी हो सकता है कि तुम्हारी आयु समाप्त हो जाए और तपस्या पूरी न हो। हां, भगवान शंकर ऐसे हैं, जो थोड़ी आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं और अवढर दानी तो ऐसे कि अपने भक्त की किसी भी इच्छा की पूर्ति के लिए कुछ सोच-विचार ही नहीं करते। भक्त ने जो मांगा तत्काल दे दिया। तुम्हारी ही जाति के रावण तथा बाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या से कितना वरदानी बल पाया था। अब तुम स्वयं विचार कर लो कि किसकी आराधना करनी चाहिए, जिससे शीघ्र फल मिले।’’

नारद का ऐसा वचन सुनकर वृकासुर ने भगवान शंकर की ही आराधना करने का निश्चय किया और हिमालय के केदार क्षेत्र में जाकर भगवान शिव की आराधना करने लगा। यज्ञ, जप, तप, ध्यान सब प्रकार से वह पूजा-पाठ करने लगा। कुछ दिनों के बाद उसने सोचा, ‘‘मैं शरीर तथा प्राण को ही भगवान शिव को अर्पित कर दूंगा।’’ 

ऐसा विचार कर एक दिन वह अपने शरीर का मांस काट-काट कर यज्ञ के अग्निकुंड में डालने लगा, लेकिन भगवान शंकर उस पर प्रसन्न न हुए। तब ऊबकर एक दिन उसने अपना शीश काट कर भगवान को अर्पित करने का निश्चय किया और स्नान-ध्यान कर जैसे ही उसने खड़ग उठा कर अपना शीश काटना चाहा कि एक भयंकर आवाज के साथ भगवान शंकर प्रकट होकर बोले, ‘‘वत्स! बस करो, तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। मैं तुम पर प्रसन्न हूं। निसंकोच कहो, क्या चाहते हो ? वर मांगो।’’


साक्षात भगवान शंकर को सामने खड़ा देख वृकासुर हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘महाप्रभु शंकर! नारद ने कहा था कि आप शीघ्र ही प्रसन्न होकर वर देते हैं, पर मैं इतने वर्षों से आपकी आराधना कर रहा था आप द्रवित नहीं हुए। आज जबकि मैं अपने प्राणों को न्यौछावर करने चला था, तब आपने प्रसन्न होकर दर्शन दिए। आप शीघ्र प्रसन्न नहीं हुए, इसका मतलब नारद ने मेरे साथ छल किया। अब आप प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो मैं भी वैसा ही कठिन वर चाहता हूं। आप कृपा कर मुझे ‘मारण-वर’ दीजिए। मैं जिस किसी प्राणी के सिर पर मात्र हाथ भर रख दूं, उसी का प्राणांत हो जाए। आप प्रसन्न हैं तो यही वर दीजिए।’’

शंकर जी वृकासुर की यह आसुरी मांग सुनकर हतप्रभ हो गए, पर देवता का वचन था, पूरा करना था अन्यथा मर्यादा नष्ट होती। बोले, ‘‘वृकासुर ! तुम्हारी तपस्या व्यर्थ नहीं जाएगी। तुमने बहुत कठिन वर की कामना से तपस्या की, इसलिए तुम्हें तपस्या भी कठिन करनी पड़ी। जाओ, जैसा वर चाहते हो, वैसा ही मिलेगा। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।’’

भगवान शिव का आशीर्वाद पाते ही वृकासुर की आसुरी-वृत्ति जागृत हो गई। कहने लगा, ‘‘प्रभो! आपका यह वर सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा लेना चाहता हूं, इसलिए पहले आपके सिर पर ही हाथ रख कर देखता हूं कि इस वर में कितनी सत्यता है ?’’

असुर की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर अपने ही जाल में फंस गए। अब क्या करें ? यह राक्षस न कुछ सुनेगा, न मानेगा। ऐसा सोचकर ही भगवान शंकर भागे। शंकर को भागता देख उसका क्रोध बढ़ गया, वह पीछा करने लगा, ‘‘नारद की तरह आपने भी मुझसे छल किया है। वरदान की परीक्षा से डर कर क्यों भाग रहे हैं ?’’ 

शंकर भूमंडल छोड़कर देवलोक तक भागते रहे और वृकासुर भी आसुरी-शक्ति के बल पर उनका पीछा करता रहा। ऋषि, मुनि तथा समस्त देवगण असहाय होकर यह देखते रहे, पर करें क्या ? कौन उसके सामने पड़े। अंत में भगवान शिव विष्णु लोक पहुंचे और विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। विष्णु ने हंसकर कहा, ‘‘बिना सोचे-विचारे वर देने का अब पता चला ? खुद ही प्राण बचाते भागते फिर रहे हो बताओ मैं क्या करूं ? आपके वर की सत्यता तो सिद्ध करनी ही होगी। किसका सिर उसके आगे करूं ?’’

शिव ने कहा, ‘‘नारायण! मुझे कोसने से मेरा यह संकट दूर नहीं होगा, कुछ करिए और जल्दी करिए, अन्यथा वह यहां भी पहुंच जाएगा।’’

भगवान विष्णु ने योगमाया से एक वृद्ध तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्वरूप बनाया और उधर चल पड़े, जिधर से वृकासुर आ रहा था। बहुत दूर जाने पर उन्हें वृकासुर आता दिखाई दिया। उन्होंने आगे बढ़कर उसे प्रणाम किया और कहा, ‘‘असुरराज कहां भागे जा रहे हैं ? लगता है, आप बहुत थक गए हैं। शरीर को विश्राम दीजिए। शरीर से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं, इसलिए उसे अधिक नष्ट मत कीजिए। आप सब प्रकार से समर्थ हैं, फिर भी मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बताइए। अक्सर लोग अपने मित्रों तथा सहायकों द्वारा अपने कार्य सिद्ध करा लेते हैं।’’


एक तेजस्वी ब्रह्मचारी की बातें सुनकर वृकासुर ने शिव के वरदान तथा उसकी परीक्षा की बात बताई। इतना सुनते ही ब्रह्मचारी हंसा, ‘‘असुरराज! तुम किसके वर की परीक्षा लेना चाहते हो ? शिव की ? जिसका अपना कोई घर-बार नहीं, जो भूतों-प्रेतों के साथ घूमता रहता है, वह भला किसी को क्या वर देगा ? वर देने वाले तो दो ही देवता हैं, एक ब्रह्मा और दूसरे विष्णु। तुम्हें वरदानी होना था, तो ब्रह्मा या विष्णु की आराधना करते। शिव के पीछे बेकार दौड़ रहे हो। वर देने वाला तो स्वयं इतना शक्तिशाली होता है कि उसके वर का असर खुद उस पर नहीं हो सकता। उन्होंने तो तुम्हें झूठ-मूठ का वर दिया है। तुम्हारी तपस्या व्यर्थ गई।’’

ब्रह्मचारी की बात सुनकर वृकासुर निराश हुआ, उसका मनोबल टूट गया। कहने लगा, ‘‘मुझे तो देवर्षि नारद ने कहा था कि शिव की आराधना करो। वह प्रसन्न होकर मनचाहा वर दे सकते हैं।’’

ब्रह्मचारी ने कहा, ‘‘तुम बड़े भोले हो, नारद पर विश्वास कर लिया। वह तो ऐसा घुमक्कड़ साधु है, जो सबको उलटी ही सलाह देता है। उसकी सलाह से कभी किसी का भला होता ही नहीं। तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो खुद अपने ही सिर पर हाथ रख कर देखो कि कैसे शिव ने तुम्हें झूठा वर देकर बहकाया है। उनकी झूठ की पोल न खुल जाए, इसलिए भाग गए।’’

वृकासुर का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसे उस ब्रह्मचारी की बात से विश्वास हो गया कि शिव ने भी उसके साथ छल किया, झूठा वर दिया है। उसका विवेक नष्ट हो गया। ऐसा सोचते हुए वर की सत्यता की परख करने के लिए उसने अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। सिर पर हाथ रखते ही भयंकर अग्रि-पुंज प्रकट हुआ और वृकासुर उसमें भस्म होकर राख का ढेर बन गया। 

बिना सोचे-विचारे किसी को कुछ देना और पाने वाले का कृतघ्न होकर दाता को ही संकट में डालने का ऐसा ही परिणाम होता है। कृतघ्नता के उन्माद में विवेक नष्ट हो जाता है और उपलब्धि ही मृत्यु का कारण बन जाती है। 

 

Niyati Bhandari

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