पांच देवियों का नित्य नाम लेने से पापमुक्त हो जाता है जीव जानें, पृथा की कथा

Wednesday, Dec 21, 2016 - 03:22 PM (IST)

भगवान से विपत्तिपूर्ण जीवन की याचना करने वाली महारानी कुंती हमारे यहां शास्त्रों में अहल्या, मन्दोदरी, तारा, कुंती और द्रौपदी- ये पांचों देवियां नित्य कन्याएं कही गई हैं। इनका नित्य स्मरण करने से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। महारानी कुंती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। जन्म से लोग इन्हें पृथा के नाम से पुकारते थे। 


ये महाराज कुंती भोज को गोद दे दी गई थीं तथा वहीं इनका लालन-पालन हुआ। अंत कुंती के नाम से विख्यात हुईं। ये बाल्यकाल से ही अतिथि सेवी तथा साधु-महात्माओं में अत्यंत आस्था रखने वाली थीं। 


एक बार महर्षि दुर्वासा महाराज कुंती भोज के यहां आए और बरसात के चार महीनों तक वहीं ठहर गए। उनकी सेवा का कार्य कुंती ने संभाला। महर्षि कुंती की अनन्य निष्ठा और सेवा से परम प्रसन्न हुए और जाते समय कुंती को देवताओं के आह्वान का मंत्र दे गए। उन्होंने कहा कि संतान कामना से तुम जिस देवता का आह्वान करोगी, वह अपने दिव्य तेज से तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाएगा और उससे तुम्हारा कन्याभाव भी नष्ट नहीं होगा। 


दुर्वासा के चले जाने के बाद इन्होंने कौतूहलवश भगवान सूर्य का आह्वान किया। फलस्वरूप सूर्य देव के द्वारा कर्ण की उत्पत्ति हुई। लोकापवाद के भय के कारण इन्होंने नवजात कर्ण को पेटिका में बंद करके नदी में डाल दिया। यह पेटिका नदी में स्नान करते समय अधिरथ नाम के सारथी को मिली। उसने कर्ण का लालन-पालन किया।
कुंती का विवाह महाराज पांडु से हुआ था। एक बार महाराज पांडु के द्वारा मृगरूपधारी किन्दम मुनि की हिंसा हो गई। मुनि ने मरते समय उन्हें शाप दे दिया। इस घटना के बाद महाराज पांडु ने सब कुछ त्याग कर वन में रहने का निश्चय किया। महारानी कुंती भी पति सेवा के लिए वन में चली गईं। पति के आदेश से कुंती ने धर्म, पवन और इंद्र का आह्वान किया जिससे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति हुई। अपनी सौत माद्री को भी इन्होंने अश्विनी कुमारों के आह्वान का मंत्र बतला कर उन्हें नकुल और सहदेव की माता बनने का सौभाग्य प्रदान किया। महाराज पांडु के शरीरान्त होने के बाद माद्री तो उनके साथ सती हो गई किंतु कुंती बच्चों के पालन-पोषण के लिए जीवित रह गईं।


जब दुर्योधन ने पांचों पांडवों को लाक्षागृह में भस्म कराने का कुचक्र रचा, तब माता कुंती भी उनके साथ थीं। पांडवों पर यह अत्यंत विपत्ति का काल था। माता कुंती सब प्रकार से उनकी रक्षा करती थीं। दयावान तो वे इतनी थीं कि अपने शरण देने वाले ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्रिय पुत्र भीम को राक्षस का भोजन लेकर भेज दिया और भीम ने राक्षस को यमलोक भेजकर पुरवासियों को सुखी कर दिया।
पांडवों का वनवास काल बीत जाने के बाद जब दुर्योधन ने उन्हें सुई की नोक के बराबर भी भूमि देना स्वीकार नहीं किया तो माता कुंती ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अपने पुत्रों को आदेश दिया, ‘‘क्षत्राणी जिस समय के लिए अपने पुत्रों को जन्म देती है वह समय अब आ गया है। पांडवों को युद्ध के द्वारा अपना अधिकार प्राप्त करना चाहिए।’’


पांडवों की विजय हुई किंतु वीरमाता कुंती ने राज्यभोग में सम्मिलित न होकर धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ वन में तपस्वी जीवन बिताना स्वीकार किया। कुंती के वन जाते समय भीमसेन ने कहा कि, ‘‘यदि आपको अंत में जाकर वन में तपस्या ही करनी थी तो आपने हम लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित करके इतना बड़ा नरसंहार क्यों करवाया?’’


इस पर कुंती देवी ने कहा, ‘‘तुम लोग क्षत्रिय धर्म का त्याग करके अपमानपूर्ण जीवन न व्यतीत करो इसलिए हमने तुम्हें युद्ध के लिए उकसाया था, अपने सुख के लिए नहीं।’’ 


भगवान के निरंतर स्मरण के लिए उनसे विपत्तिपूर्ण जीवन की याचना करने वाली माता कुंती ने इतना ऊंचा आदर्श स्थापित किया।

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