Religious Context- इस राजा ने किया ऐसा काम, जिसे जानकर आप भी करेंगे सलाम

Friday, Apr 23, 2021 - 09:36 AM (IST)

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Religious Context- किसी राज्य में एक राजा राज करते थे। राजा का नाम था न्यायव्रती। यथा नाम तथो गुण। उनके राज्य में सभी को न्याय मिलता था, इसलिए हर वर्ग के लोग सुखपूर्वक अपना जीवन-यापन करते थे। राजा नगर के अलग-अलग भागों में जाकर प्रजा के दुखों-सुखों की जानकारी प्राप्त करते। जहां भी उन्हें कोई दुखी व्यक्ति नजर आते तो वह कुछ ही समय में उनका दुख दूर कर देते। प्रजा बहुत सुखी थी।


एक बार उनके राज्य में अकाल पड़ा जिससे लोग एकाएक बहुत बड़े कष्ट में फंस गए लेकिन राजा घबराए नहीं। उन्होंने अपने खजाने का मुंह प्रजाजनों के लिए खोल दिया जिससे उनका जीवन पुन: सुखी हो गया। परोपकारी राजा के दान-पुण्य की चर्चा दूर-दूर के देशों तक फैलने लगी। दूर-दूर के लोग महाराज के पास अन्न-धन का दान लेने आते व मुंहमांगी वस्तुएं प्राप्त कर महाराज के दीर्घायु होने की कामना करते। महाराज हर तीसरे वर्ष एक महाभोज का आयोजन करते जिसमें दूर-दूर के प्रदेशों से आए भिक्षुओं, साधुओं व लोगों की भौतिक इच्छाएं पूर्ण करते।

महाराज के एक सुंदर राजकुमार थे, जिनका नाम था आनंदमूर्ति। वह सचमुच आनंद की मूर्ति ही थे। उनके सौंदर्य व दर्शन से प्रजागण आनंदित हो उठते थे। महाराज को बड़ी उम्र में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। प्रजागण, राजकुमार के जन्मोत्सव को बहुत धूमधाम से मनाते थे।

उस दिन राजकुमार का जन्मोत्सव था। चहल-पहल भरी भीड़ में एक भिखारी ने महाराज से मिलने की इच्छा व्यक्त की। महाराज न्यायव्रती अपने पास आए हर अतिथि, चाहे वह भिखारी ही क्यों न हो, को भगवान का रूप समझते थे। सिपाही ने भिखारी की बात कही तो महाराज ने सादर उसे अपने दरबार में बुलाने का आदेश दिया। वृद्ध, कंकाल भिखारी ने महाराज को प्रणाम कर कहा, ‘‘महाराज! मैं भी अन्य लोगों की तरह आपसे कुछ भीख मांगने आया हूं। क्योंकि मैं तो निर्जन प्रदेश में रहता हूं....इसलिए, मेरी मांग भौतिक नहीं है। मैं बहुत कष्ट में हूं.... क्या आप मेरी सहायता कर सकेंगे?’’

‘‘हे वृद्धदेव! मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार आपकी हर मांग पूरी करूंगा। यदि मैं किसी के कष्ट को कम न कर सकूं तो मेरा संसार में जीवित रहना व्यर्थ है।’’

‘‘तो महाराज, मुझे आप का एकमात्र पुत्र रत्न चाहिए।’’


सुनते ही रानी और प्रजागणों की त्योरियां चढ़ गईं। सभी को भिखारी की बातें सुनकर क्रोध आया कि यह अपशकुनी भिखारी कहां से चला आया। महाराज न्यायव्रती धर्म-संकट में पड़ गए कि आज तक कोई साधु या भिखारी उनके दरबार से खाली व असंतुष्ट नहीं लौटा था। उन्होंने उससे विनयपूर्वक कहा- ‘‘हे वृद्धदेव! मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूं। अब मैं राजपाट अपने अकेले पुत्र को सौंपना चाहता था। यदि संभव हो तो आप इसके अतिरिक्त कुछ भी मांग लीजिए।’’

‘‘नहीं महाराज! मैं तो केवल एक लंगोट से ही पूरे वस्त्रादि का काम चला लेता हूं। मेरी नजरों में और सब शून्य है। यदि आप राजकुमार को नहीं दे सकते तो क्या मैं असंतुष्ट चला जाऊं?’’ भिखारी ने कर्कश आवाज में कहा।

‘‘यहां की विवश प्रजा की स्थिति को भी आप समझें ऋषिदेव!’’

‘‘महाराज! मैं ऋषि नहीं हूं... मैं तो एक गरीब भिखारी हूं... मेरा निराश लौटना राज्य के लिए संकटमय भी सिद्ध हो सकता है... अच्छा ...।’’

कहकर वह आंखों में आग बरसाकर चलने लगा।

‘‘महाराज उसे रोकने लगे तो महारानी व अन्य वरिष्ठ सिपाहियों ने कहा- ‘‘महाराज! अपनी सीमा में रहिए। आपने सभी को संकट में डाल दिया है। कहो तो इस अपशकुनी भिखारी को बंदीगृह में डाल देते हैं।’’

भिखारी नाराज होकर कुछ दूरी तक ही गया था कि राजा उसके पीछे दौड़ पड़े, पीछे-पीछे प्रजा भी। राजा ने एकाएक निर्णय लेकर कहा- ‘‘हे वृद्धऋषि! मेरे इकलौते राजकुमार के बदले में आप स्वयं मुझे ही ले जाएं।’’

‘‘महाराज! भिखारी सौदा नहीं करते।’’

‘‘अच्छा! तो ले जाएं आनंदमूर्ति को। जीवन के हर अच्छे कार्य में ईश्वर का ही हाथ होता है। नहीं तो न मैं दे सकता हूं और न ही आप ले सकते हैं। अच्छा तो आप राजकुमार को ले जाएं।’’

महाराज के इस निर्णय को सुनकर सब स्तब्ध रह गए। रानी को काटो तो खून नहीं। आखिर राजा को क्या हो गया?  इनकी मति किसने बदल दी?  जन्मोत्सव के लिए तैयार राजकुमार सभी को प्रणाम कर घोड़े पर बैठ भिखारी के साथ चला गया। प्रजा रो पड़ी।

महाराज भी अपने किए पर गहरी सोच में पड़ गए। खुशियों में झूमता हुआ राजमहल गहरे गम में डूब गया। महाराज ने जन्मोत्सव मनाने व दान-पुण्य के कार्यों को जारी रखने का आदेश दिया। पुत्र वियोग में महारानी का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। राज्य में मातम छा गया।

समय बीता। एक दिन महाराज जब संध्या के उपरांत सूर्यदेव को अर्घ्य चढ़ा रहे थे तो अपने सामने खड़े एक दिव्य ऋषि को देखा। प्रसन्न हो ऋषि ने कहा, ‘‘हे दानी महाराज! आप धन्य हैं। आप इस कठोर परीक्षा में सफल हुए। आपने अपने इकलौते पुत्र को दान कर यह सिद्ध कर दिया है कि दानी व्यक्ति अपनी अमूल्य से अमूल्य वस्तु को भी दान कर सकता है।’’

‘‘मैं आप के इस महादान से प्रसन्न हूं। यह लो अपना राजकुमार ...अब इसे दुनिया में कोई नहीं मार सकेगा...यह मनचाही मृत्यु से ही मर सकता है। अब आप राजकुमार का जन्मोत्सव नहीं... राजतिलक करें... यह लो रूपवती राजकुमारी...।’’ कहकर वह दिव्यऋषि अदृश्य को गए।

पूरे राज्य में राजकुमार के विवाहोत्सव धूमधाम से मनाया गया। अब चारों ओर खुशियों ही खुशियों का साम्राज्य फैला हुआ था।

 

 

Niyati Bhandari

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