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Saturday, May 12, 2018 - 08:44 AM (IST)
सरी सक्ती अपने वक्त के आला दर्जे के सूफी संत थे। उनकी सादगी बड़ी मशहूर थी। वह जल्दी किसी से कुछ लिया नहीं करते थे। यह बड़ा आम था कि जिसका नज़राना सरी सक्ती ने कबूल कर लिया वह खुद को धनी समझता था।
सरी सक्ती का भांजा था जुनैद। एक रोज़ जुनैद पढ़कर घर लौट रहा था कि रास्ते में उसे अपने पिता रोते मिल गए। पिता को रोता देख जुनैद ने पूछा, ‘‘क्यों रो रहे हैं? किसी ने चोट पहुंचाई या तकलीफ दी?’’
पिता बोले, ‘‘ये दीनार हमने मेहनत से कमाए थे और सोचा था कि सरी सक्ती को नज़र करेंगे मगर उन्होंने न केवल ये लेने से मना कर दिया बल्कि इनकी ओर निगाह उठाकर भी नहीं देखा। बताओ, हमारी मेहनत और ईमानदारी की कमाई भी सरी सक्ती ने स्वीकार नहीं की।’’
यह बात जुनैद को बड़ी नागवार गुज़री। उन्होंने पिता से वे दीनार लिए और सरी सक्ती के घर चल दिए। दरवाज़े पर पहुंच कर आहट दी। उधर से सवाल आया, ‘‘कौन है?’’
वह बोले, ‘‘जुनैद।’’
‘‘क्या करने आए हो?’’
‘‘अपने पिता का नज़राना लाया हूं, आप देख लीजिए।’’ मगर सरी सक्ती ने दरवाज़ा ही नहीं खोला और नज़राना वापस ले जाने को कहा।
बंद दरवाज़े के बाहर खड़े जुनैद बगदादी ने जवाब दिया, ‘‘यह नज़राना मैं उस खुदा के नाम पर देने आया हूं जिसने आप पर तमाम मेहरबानी की और आपको दरवेश बनाया। उसी खुदा ने मेरे पिता के साथ भी इंसाफ किया और उन्हें दुनियादार बनाया। मेरे पिता ने अपना कर्तव्य पूरा किया, अब आपका जो कर्तव्य बनता है वह कीजिए।’’
मासूम बच्चे का यह जवाब सुनकर सरी सक्ती ने दरवाज़ा खोल दिया और नज़राना ही नहीं कबूला बल्कि जुनैद को भी गले से लगा लिया और कहा, ‘‘मुझे मेरा शागिर्द मिल गया।’’
यही जुनैद आगे चलकर मशहूर सूफी संत जुनैद बगदादी के नाम से मशहूर हुए।