भलाई करने वाला कभी नहीं हारता

Saturday, Apr 01, 2017 - 03:02 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 


अध्याय छ: ध्यानयोग


श्रीभगवानुवाच


पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।। 40।।


शब्दार्थ : श्रीभगवान् उवाच—भगवान ने कहा; पार्थ—हे पृथापुत्र; न एव—कभी ऐसा नहीं है; इह—इस संसार में; न—कभी नहीं; अमुत्र—अगले जन्म में; विनाश:—नाश; तस्य— उसका; विद्यते—होता है; न—कभी नहीं; हि—निश्चय ही; कल्याण-कृत्—शुभ कार्यों में लगा हुआ; कश्चित्—कोई भी; दुर्गतिम्—पतन को; तात—हे मेरे मित्र; गच्छति—जाता है।


अनुवाद : भगवान् ने कहा : हे पृथापुत्र! कल्याण कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।


तात्पर्य : यदि कोई समस्त भौतिक आशाओं को त्याग कर भगवान् की शरण में जाता है तो इसमें न तो कोई क्षति होती है और न पतन। दूसरी ओर अभक्त जन अपने-अपने व्यवसायों में लगे रह सकते हैं, फिर भी वे कुछ प्राप्त नहीं कर पाते। भौतिक लाभ के लिए अनेक शास्त्रीय कार्य हैं। आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् कृष्णभावनामृत के लिए योगी को समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग करना होता है। कोई यह तर्क कर सकता कि यदि कृष्णभावनामृत पूर्ण हो जाए तो इससे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु यदि यह सिद्धि प्राप्त न हो पाई तो भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से मनुष्य को क्षति पहुंचती है।

(क्रमश:)

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