विनोबा भावे में कैसे जागृत हुए वसुधैव कुटुम्बकम की भावना

Saturday, Aug 13, 2022 - 12:03 PM (IST)

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विनोबा भावे जब बालक थे उस दौरान उनके घर के आंगन में एक पपीते का वृक्ष था। विनोबा उसे प्रतिदिन सींचते। उसमें फल लगे। विनोबा का मन कच्चे फल ही खाने को ललचाया। मां ने कहा-बेटा! कच्चे फल नहीं खाए जाते। तुम इन कच्चे पपीते को मत तोड़ना। जब ये पक जाएंगे तब खाना। उस समय यह फल मीठा भी लगेगा, अन्यथा यह कड़वा होगा। पुत्र मां की बात मान गया।

लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात फल पके। पके फल को देखकर विनोबा बड़े खुश हुए। उन्होंने दो फल तोड़े और उन्हें अच्छी तरह से काटा और फांकों को संवार कर थाल में सजाया। विनोबा के मन में अपनी मेहनत के फल चखने की अत्यधिक उत्सुकता थी। उन्हें खाने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया, मां ने कहा! तुम देव बनना चाहते हो या दानव? क्योंकि जो दूसरों को खिलाकर या देकर खाता है, वह देव है और जो खुद के लिए ही रखता है वह दानव है, बताओ तुम्हें क्या बनना है?

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विनोबा बोले-मां मुझे देव बनना है। मां ने आज्ञा दी-तो जाओ इन पपीतों की फांकों को पहले पड़ोसियों को बांटों। घर में लगे हुए पहले फल का अधिकारी पड़ोसी होता है। विनोबा मां की आज्ञा सुनकर वह थाल लेकर पड़ोसियों के घर पर दौड़ पड़े। पड़ोसी उसमें से एक-एक फांक लेते गए और प्रेम से विनोबा की पीठ थपथपाते गए कि वाह! बड़ा मीठा पपीता लाए हो।

बची हुई फांकों को लेकर विनोबा घर पर आए और अपने भाइयों को बांट कर खुद भी खाने लगे। मां ने फिर पूछा-पपीता मीठा तो है न? विनोबा ने उत्तर दिया-अम्मा! पड़ोसियों की प्रेम की थपकी में जो मिठास थी, वह पपीते में कहां है? विनोबा जी में-वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को जागृत करने का श्रेय उनकी मां को ही था।
 

Jyoti

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